जैसे सतगुरु तुम करी , मुझसे कछु न होय ।
विष भांडे विष काढ कर , दिया अमीरस मोय ॥
❖ शब्दार्थ
- जैसे सतगुरु तुम करी = जैसा उपकार आपने किया
- मुझसे कछु न होय = मैं उसका प्रतिदान करने में असमर्थ हूँ
- विष भांडे = शरीररूपी बर्तन जो वासनाओं और अज्ञान से भरा है
- विष काढ कर = उस जहर (अज्ञान, वासनाएँ, विकार) को दूर करके
- अमीरस = राम-नाम रूपी अमृतरस, जीवनदायी अमृत
❖ भावार्थ
आचार्यश्री कहते हैं – हे सतगुरुदेव! आपने मेरे लिए बहुत उपकार किया है, परन्तु इसके बदले मैं आपको कुछ भी लौटा नहीं सकता। यह शरीर मानो ज़हर से भरा हुआ बर्तन था। गुरूदेव ने उस ज़हर को निकालकर मुझे राम-नाम रूपी अमृत का पान कराया।
❖ व्याख्या
- सतगुरु का उपकार अनंत और अप्रतिदेय है। शिष्य चाहे कितना भी प्रयास करे, गुरु की दया का ऋण कभी चुका नहीं सकता।
- मनुष्य का शरीर और मन जब तक विकारों, अहंकार और अज्ञान से भरे रहते हैं, तब तक वह विष के पात्र के समान है।
- गुरु ही उस विष को निकालकर साधक को नाम-रस का अमृत प्रदान करते हैं, जिससे उसका जीवन पवित्र और आनंदमय हो जाता है।
- यहाँ यह भी संदेश है कि आत्मिक यात्रा में सब कुछ गुरु की कृपा से संभव होता है, न कि शिष्य के बल से।
❖ टिप्पणी
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि —
- गुरु कृपा ही सबसे बड़ा धन है, जिसका उपकार कोई साधक नहीं चुका सकता।
- हमारा मन और शरीर तब तक विषमय है जब तक उसमें गुरु का नाम और उपदेश न उतरे।
- राम-नाम रूपी अमृत ही वह औषधि है जो जीवन को न केवल शुद्ध करता है बल्कि अमर आनंद से भर देता है।
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