Sunday, 24 August 2025

रंजी शास्त्र ज्ञान की ।। Sri Dariyav Vani


रंजी शास्त्र ज्ञान की, अंग रही लिपटाय ।
सतगुरु एकहि शब्द से, दीन्ही तुरत उड़ाय ॥ 


❖ शब्दार्थ

  • रंजी = मिट्ठी के सूक्ष्म कण जो हवा उड़ते है, दाग या परत
  • शास्त्र ज्ञान की रंजी = शास्त्रों के ज्ञान का अहंकार या बाहरी परत
  • अंग रही लिपटाय = शरीर और मन पर अहंकार की परत लिपटी रहना
  • सतगुरु एकहि शब्द = सतगुरु का संक्षिप्त और सारभूत उपदेश
  • तुरत उड़ाय = क्षणभर में मिटा दिया, नष्ट कर दिया

❖ भावार्थ

महाराजश्री कहते हैं कि मेरे भीतर शास्त्रों के ज्ञान का अभिमान चिपका हुआ था। मुझे लगता था कि बहुत जानता हूँ, बहुत समझता हूँ।
लेकिन जब सतगुरु ने एक ही शब्द (सच्चा उपदेश) दिया, तो मेरे ज्ञानाभिमान की यह परत तुरन्त ही उड़ गई और मैं विनम्र होकर सत्य की ओर अग्रसर हुआ।


❖ व्याख्या

  • ज्ञान का अहंकार: केवल शास्त्र पढ़ लेने या तर्क करने से आत्मज्ञान नहीं होता। कई बार यह दिखावटी ज्ञान साधक को और भी बाँध देता है।
  • सतगुरु की शक्ति: सतगुरु के शब्द में इतनी सामर्थ्य होती है कि वह साधक के भीतर जमा हुआ अभिमान तुरंत तोड़ देता है।
  • विनम्रता का उदय: जब अहंकार मिटता है तो साधक शुद्ध हृदय से गुरु और ईश्वर की भक्ति में प्रवृत्त हो जाता है।
  • सच्चा ज्ञान: वास्तविक ज्ञान केवल गुरु की कृपा और उनके शब्द से ही प्राप्त होता है, न कि केवल पुस्तकों से।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें सिखाता है कि —

  1. शास्त्र और ज्ञान उपयोगी हैं, परंतु अहंकार के साथ वे आत्म-विकास में बाधा बन जाते हैं।
  2. सतगुरु का उपदेश अहंकार की परत को मिटाकर आत्मा को शुद्ध और सरल बना देता है।
  3. विनम्रता ही सच्चे ज्ञान का द्वार है

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