अथ फतैचंदजी भोजन को प्रसंग
इस प्रसंग में मेड़ता सिटी के सेवक (ब्राह्मण) फतहचन्द का आचार्य महाप्रभु को निमंत्रण देना। प्रेम के कारण से भूल से भोजन में तेल परोसना महाराज की कृपा से तेल का घृत बन जाना।
फतैचंद भोजग मेड़ते रहे वड भागी ।
जन की प्रीत सवाय, दास दरिया सुं लागी ॥
करी एक दिन अरज, आप परसाद करीजे ।
पूरब प्रीत पिछाण, मोय गिणती में लीजे ॥
धिन मेरो वड भाग, आप की कृपा भारी।
आय मिल्यो संजोग, वीदर घर किसन मुरारी ।।
राजा के प्रतीत, आप की मन में साची ।
लिया जद आराध, रहण सुं कीनी आछी ।।
ओरां को परसाद, राज सूं करी मनाई।
ओ मोसर ओ डाव, फेर असो नहीं आई ।।
फतेचंद कर जोङ, कहयो सादां के आगे ।
आप करो परसाद, भाग भल मेरो जागे ॥
सुणे बात दरबार, करे राजा तकरारी ।
धन समर्थ म्हाराज, दया दिल देखो म्हारी ॥
आग्या दीवी म्हाराज, आप किरपा कर भारी ।
कर बेगो परसाद, होय हाजर सो तियारी ॥
प्रेम मगन मतवाला, ईस्यो मन माही हुँस्यो।
भयो तियार परसाद, तेल जब आण परुस्या ॥
जीम जूट म्हाराज, आप तब चलु कराई।
फतेचंद ने बात याद, जब मन में आई ॥
हो हो किरपा निधान, जलम मेरो मैं हारयो ।
धिरत जाण म्हाराज, तेल भोजन में डारयो ॥
ईस्यो दोष अपराध, कोहो कैसी विध जावे।
बार बार सेवग, आप मन में पिसतावे ।।
कहयो दास दरियाव, प्रीत साधां सुंथारी।
आज परसाद स्वाद, बोत विध लागो भारी ॥
भयो तेल को श्रीत, रामजी आछी कीनी।
आद अंत म्हाराज, सोब संता ने दीनी ॥
बालमीत पंच ग्रास, लिया पांडवा के द्वारे।
वागो संख पचाण, प्रगट सब संत पुकारे ॥
कीसन देव म्हाराज, भगत की सिपत बधारी ।
पंडवां के जिग माहिं, करी अत महिमा भारी ॥
साग बीदर घर पाय, प्रीत का छूत अरोग्या ।
तंदुल सुदामा दिया, महल कंचन का होग्या ॥
इस्यो संत गोग्रास, ताय सम तुले न कोई ।
तीन लोक वैकुंठ, ब्रह्मा लग प्रकट होई ॥
सिव ब्रह्मा अरु सेस, आहा नारायण भाखी।
भगवंत श्रीमद्, फेर रामायण साषी ॥
दोहा
सानभद्र को जीव थो, पेलै जन्म मेघवाल ।
आहार दियो भगवंत को, तूठा दीन दयाल ॥
धन व निंद सदा, कंचन जड़त अवास।
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