अथ राजा विजेसिंघजी को प्रसंग
इस प्रसंग में श्री विजय सिंह जी का सेना समेत मेड़ता सिटी में ठहरना व आचार्य श्री को बुलाकर सेवा करना और आचार्य महाप्रभु की आज्ञा मानकर मेड़ता परगना में कर माफ करना ।
विजेपाल भोपाल, भगत नोदा इदकारी।
जन दरिया सुं प्रीत, रीत आरत उर धारी ॥
मोरधज अम्रीक, परीखत जैसो राजा।
जोधाणा नाथ सुनाथ, चले दरसण के काजा ॥
च्यार सीरायत साथ, मीसल आठु ही लारे ।
दर कूचां घरबार, मेड़ते आप पधारया ।।
भाव प्रेम जग्यास, साध लावो एक छिन में।
में दरसण को प्यास, धार आयो हूँ मन में ।
गंगादास नाजर, दूसरो गोरधन खींची।
चढया वेग तत काल, बात सो कीनी ऊंची ॥
राहेण नगर मंजार, लेण साधांनु आया।
भाव प्रेम परसाद, भेट नारेल चढ़ाया ॥
अरज करी कर जोड़, मेड़ते आप पधारो ।
हो करुणा का भवन, चरण राजा घर धारो ॥
रथ बैठे दरियाव, मेड़ते आप सिधाया ।
नरपत कर उछाव, मोतीयां थाल बंदाया ॥
रहया दिन पचीस, मेड़ते नगर मंजारा ।
राजा परजा रेत, दरसण मिल आया सारा ॥
अयेसो नाम परताप, नरपत सो चरणां लागा।
सुण्या ग्यान बहैबीत, भरम सारा का भागा ॥
तब राजा बीजे पाल, भेट पूजा विसतारी।
लाग बाग सब माफ, सही कर दीनी सारी ॥
बीजेपाल नरपत राय, मेड़ते डेरा दीना ।
जन दरियां का दरसण, परसण होय परगट कीना ॥
नित नेम परसाद, राज सुं थाल पुगावे ।
जन दरिया म्हाराज, आप जब भोजन पावे ॥
वालमीत ज्यूं प्रगट, ईस्या महाराज कहीजे ।
कहयो राजा विजेपाल, नफो पाडवां ज्यूं लीजे ॥
ज्यां जिम्या जिग मांह, संख जब प्रगड वागो ।
च्यार वरण आश्रम, भरम सारो को भागो ॥
कुल को कारण नाहीं, नांव की महिमा भारी।
भारत में कहयो ब्यास, गीता में किशन मुरारी ॥
औ नरपत के स्वाल, वचन अत बोले गाडा ।
हाथ जोड़ आधीन, दीन होय आपै ठाडा ॥
दोहा
संत प्रगट दरियावजी मुरधर देश दयाल ।
तां दरसण न्रप उधरया बखतसिंघ व्रीजपाल।।
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