अथ माया को प्रसंग
सतरा से के सम्वत, चोतरो वरस वदितो।
पांच सेर को धान, भाव जब मूंगो विगतो ।।
एक दिन आकास भई, दरिया कूं वाणी ।
अंछाया रूपी आप, बोलिया सारंग प्राणी ॥
तीन सबद की वाज, धान की आग्या दीनी ।
मान मान दरियाव, क्रिपा तोय पर कीनी ॥
माया ईश्वर आप, त्रिगुणी रूप दिखाया।
जन दरिया म्हाराज, भेद अन्तर में पाया ॥
प्रसन करी म्हाराज, शिख सुं गिरा उाचरी ।
भयो अचंभो मोय, विघन मायो को भारी ॥
धान लीयो ते मोल, जाय पाछो फिर दीजे ।
राम भरोसो राख, राम को सिवरण कीजे ॥
राखण हारा, राम, कहो कैसी विद मारे।
रोम रोम रमतीत, आप व्यापग है सारे ।
धन बड भागी सिष, गुरां को कहीयो जकीनो।
नफा सहत ले धान, जाय वणिया ने दीनो ॥
दिन दस को ले धान, घरे जीमण ने राख्यो ।
कुशालचंद ले आप, जाय कोठी में नाख्यो ।
भाव प्रेम परसाद, आप नित भोजन पायो ।
षट् मास लग रहयो, दिन दिन वधयो सवायो ॥
आठ सिद नो नीद, सदा संतन के आगे ।
और विघन की कूंण, देख दूरां सुं भागे ॥
काम धेनु कल्प छ, पदार्थ मिठा चितामण ।
च्यार मुगत वैकुंठ, नहीं अंछाया सपनायण ॥
दोहा
छाडन माया संग रहे, नित नेम हजुरी ।
पकड़ विघन उठावे, जाय सो कोसां दूरी ॥
जैसा राम दयाल, साय सन्तन की करहे।
मेटे विघन अनेक, आण अवतारज धरहै ॥
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