Friday, 5 September 2025

बिक्ख छुड़ावै चाह कर ।। Sri Dariyav Vani


बिक्ख छुड़ावै चाह कर , अमृत देवै हाथ ।
जन दरिया नित कीजिए, उन संतन का साथ ॥

शब्दार्थ

  • बिक्ख → विष, यहाँ मोह, क्रोध, लोभ, वासनाएँ और अज्ञान।
  • छुड़ावै → छुड़ाते हैं, दूर करते हैं।
  • चाह कर → चाह और वासनाओं से मुक्ति दिलाकर।
  • अमृत → परमात्मा का नाम, शांति और अमरत्व का ज्ञान।
  • देवै हाथ → अपने हाथों से प्रदान करना, सहज उपलब्ध कराना।
  • संतन का साथ → संतों और सतगुरु की संगति।

भावार्थ

आचार्यश्री कहते हैं कि संत महापुरुष और सतगुरु हमारे जीवन से वासनाओं और मोह रूपी विष को निकालकर हमें अमृत रूपी नाम, भक्ति और मुक्ति का ज्ञान देते हैं। वे मनुष्य को नश्वर दुःखों से मुक्त करके अमरत्व और आनंद प्रदान करते हैं। इसलिए ऐसे सतगुरु-संतों का संग निरंतर करना चाहिए।

व्याख्या

  • जीवन में मोह, क्रोध, लोभ और वासनाएँ हमारे लिए विष के समान हैं, जो धीरे-धीरे आत्मा को नष्ट करते हैं।
  • संत और सतगुरु इन विषों को अपनी कृपा और उपदेश से निकालते हैं।
  • वे हमें रामनाम रूपी अमृत का पान कराते हैं, जो आत्मा को अमर, स्वस्थ और आनंदमय बना देता है।
  • "देवै हाथ" यह सूचित करता है कि यह अमृत दूर नहीं, बल्कि सतगुरु की कृपा से सरल और सहज रूप में प्राप्त होता है।
  • आचार्यश्री हमें शिक्षा देते हैं कि ऐसे महापुरुषों का संग करना ही सबसे बड़ा पुण्य और कल्याणकारी कार्य है।

व्यवहारिक टिप्पणी

यह दोहा हमें प्रेरणा देता है कि—

  • संतों और सतगुरुओं की संगति में ही जीवन का सच्चा कल्याण है।
  • यदि हम विष रूपी इच्छाओं और वासनाओं में फँसे रहेंगे, तो जीवन दुखमय होगा।
  • परंतु संतों का संग हमें उस विष से मुक्त कर अमृत प्रदान करता है।
  • इसलिए साधक को चाहिए कि वह नित्य संतों का स्मरण और संग करे, क्योंकि वही जीवन की सबसे बड़ी संपत्ति है।


Wednesday, 3 September 2025

यह दरिया की वीनती।।श्री दरियाव वाणी


यह दरिया की वीनती , तुम सेती महाराज ।
तुम भृंगी मैं कीट हूँ , मेरी तुमको लाज ॥


 शब्दार्थ

  • वीनती → विनती, प्रार्थना।
  • महाराज → यहाँ सतगुरु के लिए आदरपूर्वक संबोधन।
  • भृंगी → भौंरा (भृंग), जो कीट को अपने स्वरूप में बदल देता है।
  • कीट → साधारण कीड़ा, यहाँ शिष्य का प्रतीक।
  • लाज → जिम्मेदारी, मान और प्रतिष्ठा की रक्षा।

भावार्थ

आचार्यश्री कहते हैं कि हे गुरूदेव! मैं तो अज्ञान और दोषों से भरा हुआ एक साधारण कीट हूँ, और आप भृंग अर्थात् दिव्य गुणों वाले गुरु हैं। जैसे भृंग कीट को अपनी ध्वनि से अपने जैसा बना देता है, वैसे ही आपकी कृपा और आपके दिव्य शब्द से मैं भी आपके समान स्वरूप को प्राप्त कर सकता हूँ। इसलिए आप मुझे अपनी शरण में लेकर परिपूर्ण बना दीजिए।


व्याख्या

  • इस दोहे में शिष्य की पूर्ण विनम्रता और आत्म-समर्पण प्रकट होता है।
  • शिष्य स्वयं को नगण्य मानकर कहता है कि मैं तो एक छोटा-सा कीट हूँ।
  • गुरु की तुलना भृंग (भौंरा) से की गई है, जो अपनी गूंज से कीट को बदल देता है।
  • "मेरी तुमको लाज" का आशय यह है कि शिष्य को अपनी आत्मा के सुधार की चिंता नहीं है, वह इसे गुरु की जिम्मेदारी मानता है।
  • यहाँ गुरु-शिष्य का सम्बन्ध केवल शिक्षा का नहीं बल्कि आत्मिक परिवर्तन का है।
  • शिष्य का विश्वास है कि गुरु के शब्द और कृपा से उसका अज्ञान नष्ट होकर वह भी गुरु-जैसा स्वरूप धारण कर लेगा।

व्यवहारिक टिप्पणी

यह दोहा हमें यह सिखाता है कि—

  • सच्चा शिष्य अपने दोषों और अज्ञान को स्वीकार करता है और उन्हें गुरु के सामने समर्पित कर देता है।
  • गुरु की शरण में जाना और पूरी निष्ठा से उन्हें समर्पित होना ही साधना की असली शुरुआत है।
  • जब शिष्य अपनी "लाज" (अर्थात अपने उद्धार की जिम्मेदारी) गुरु को सौंप देता है, तभी गुरु उस पर कृपा कर उसे दिव्य बना देते हैं।
  • यह शिष्य का आत्मविश्वास और गुरु पर अटूट भरोसा दर्शाता है।


Saturday, 30 August 2025

साध सुधारै शिष्य को।। श्री दरियाव दिव्य वाणी जी


साध सुधारै शिष्य को, दे दे अपना अंग ।
दरिया संगत कीट की, पलटि सो भया भिरंग ॥


शब्दार्थ

  • साध सुधारै शिष्य को → सतगुरु शिष्य को सुधारते हैं, उसका आत्मिक निर्माण करते हैं।
  • दे दे अपना अंग → अपने स्वरूप और गुण शिष्य को प्रदान करते हैं।
  • दरिया → संत दरियावजी।
  • संगत कीट की → कीट-भृंग की संगति का दृष्टांत।
  • भिरंग → भौंरा, जो कीट को अपने समान बना देता है।

भावार्थ

आचार्यश्री बताते हैं कि जैसे भौंरा किसी कीट को अपने पास रखकर निरंतर गुनगुनाता है, और धीरे-धीरे वह कीट भौंरे के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, वैसे ही सतगुरु की संगति और वाणी शिष्य को बदल देती है। सतगुरु अपने अंग अर्थात् स्वरूप, गुण और शक्ति शिष्य को देकर उसे अपने जैसा बना देते हैं।


व्याख्या

  • शिष्य साधारण मनुष्य रूप में गुरु के पास आता है, जिसमें अज्ञान, वासनाएँ और दोष होते हैं।
  • गुरु अपने वचन, ध्यान और कृपा से शिष्य को बार-बार जगाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे भौंरा गुनगुनाता है।
  • धीरे-धीरे शिष्य का मन बदलने लगता है, वह गुरु की धारा में ढलने लगता है।
  • अंततः शिष्य का स्वभाव और स्वरूप गुरु जैसा हो जाता है –
    • अज्ञान नष्ट हो जाता है।
    • विवेक और भक्ति उत्पन्न होती है।
    • आत्मा अपने मूल स्वरूप को पहचानने लगती है।
  • यहाँ "दे दे अपना अंग" का आशय यह है कि सतगुरु शिष्य को अपने जैसी चेतना और ज्ञान से भर देते हैं।
  • कीट-भृंग की उपमा से यह सिद्ध किया गया है कि संगति का प्रभाव जीवन को पूरी तरह बदल सकता है

व्यवहारिक टिप्पणी

यह दोहा हमें यह सिखाता है कि—

  • जैसे संगति का असर होता है, वैसे ही सतगुरु की संगति साधक के जीवन को दिव्य बना देती है।
  • यदि मनुष्य सतगुरु के पास जाकर सच्चे भाव से बैठता है और उनकी वाणी को धारण करता है, तो वह भी धीरे-धीरे गुरु जैसा हो जाता है।
  • गुरु शिष्य को केवल उपदेश ही नहीं देते, बल्कि अपनी आत्मिक शक्ति का संचार भी उसमें करते हैं।
  • यह प्रक्रिया धैर्य और समर्पण से पूरी होती है, जैसे कीट को भौंरा समय देकर बदलता है।


Friday, 29 August 2025

गुरु आये घन गरज कर।। Sri Dariyav Vani


गुरु आये घन गरज कर, करम कड़ी सब खेर ।
भरम बीज सब भूनिया, ऊग न सक्के फेर ॥


 शब्दार्थ

  • गुरु आये → सतगुरु का प्रकट होना।
  • घन गरज कर → बादल की गर्जना समान प्रबल उपदेश देना।
  • करम कड़ी सब खेर → कठोर कर्म-बन्धनों को तोड़ डाला।
  • भरम बीज सब भूनिया → मोह-माया और अज्ञान के बीज जला दिए।
  • ऊग न सक्के फेर → वे बीज फिर कभी अंकुरित नहीं हो सकते।

 भावार्थ

महाराजश्री कहते हैं कि जब सतगुरु अपने प्रखर वचन और कृपा से साधक के हृदय में उतरते हैं, तब वे अज्ञान और कर्मबंधन के बीज को जलाकर नष्ट कर देते हैं। जैसे जला हुआ बीज कभी अंकुरित नहीं हो सकता, वैसे ही गुरु-कृपा से भस्म हुए कर्म दोबारा फल देने में असमर्थ हो जाते हैं।


व्याख्या

  • हमारे जन्म और मृत्यु का चक्र कर्म और वासनाओं के कारण चलता रहता है।
  • जब तक मन में इच्छाएँ और मोह का बीज है, तब तक आत्मा पुनः-पुनः जन्म लेती रहती है।
  • सतगुरु की वाणी "घन गरज" की तरह होती है, जो साधक को भीतर से झकझोर देती है और भरम (भ्रम), मोह और अज्ञान को भस्म कर देती है।
  • इस अवस्था में साधक का जीवन पूर्णत: बदल जाता है—
    • कर्म-बंधन का नाश हो जाता है।
    • मोह-माया की जड़ कट जाती है।
    • आत्मा परमात्मा की ओर अग्रसर होती है।
  • जैसे बीज को भून देने पर उसमें जीवनशक्ति नहीं रहती, वैसे ही गुरु-प्रसाद से कर्म-बीज निष्क्रिय हो जाते हैं और साधक को पुनर्जन्म का भय नहीं रहता।

व्यवहारिक टिप्पणी

यह दोहा हमें प्रेरणा देता है कि—

  • गुरु-कृपा और नाम-स्मरण से अज्ञान और मोह के बीज जल जाते हैं।
  • जब साधक का लक्ष्य केवल परमात्मा-प्राप्ति रह जाता है, तब संसारिक इच्छाएँ और वासनाएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं।
  • यही अवस्था मुक्ति (मोक्ष) की ओर पहला कदम है।

जैसे जला हुआ बीज फिर अंकुरित नहीं होता, वैसे ही सतगुरु की कृपा से जला हुआ कर्म-संचय हमें दोबारा संसार में बाँध नहीं सकता।


Thursday, 28 August 2025

गुरु आये घन गरज कर ।। श्री दरियाव वाणी


गुरु आये घन गरज कर, शब्द किया प्रकाश ।
बीज पड़ा था भूमि में, भई फूल फल आस ॥


 शब्दार्थ

  • गुरु आये → सतगुरु का प्रकट होना, शिष्य के जीवन में आगमन।
  • घन गरज कर → मेघ की गड़गड़ाहट की तरह सशक्त वाणी से।
  • शब्द किया प्रकाश → नाम-शब्द का प्रकाश किया, शब्दज्ञान दिया।
  • बीज पड़ा था भूमि में → आत्मा रूपी बीज, जो अज्ञान की मिट्टी में पड़ा हुआ था।
  • भई फूल फल आस → बीज अंकुरित होकर फूल-फल की आशा बनी; आत्मिक जीवन में विकास और फल प्राप्ति की संभावना बनी।

 भावार्थ

महाराजश्री कहते हैं कि जब सच्चे सतगुरु की कृपा से नाम-शब्द का प्रकाश हृदय में प्रकट होता है, तब आत्मा रूपी बीज अंकुरित होकर आगे फल-फूल देने लगता है। जिस प्रकार बिना सूर्य और जल के बीज निष्क्रिय पड़ा रहता है, वैसे ही गुरु-कृपा के बिना आत्मा सुप्त अवस्था में रहती है। गुरु-वाणी (शब्द) ही वह ज्योति है जो भीतर चेतना का द्वार खोल देती है और आत्मा में ईश्वर दर्शन की आशा जाग्रत होती है।


व्याख्या

इस दोहे में आत्मिक जीवन की उन्नति को बीज, फूल और फल के प्रतीक द्वारा समझाया गया है।

  • जब तक बीज मिट्टी में दबा रहता है, उसमें जीवन की संभावना तो होती है पर प्रकट नहीं होती। उसी प्रकार आत्मा में अनंत शक्ति छिपी होती है, पर अज्ञान के कारण वह सुप्त पड़ी रहती है।
  • गुरु के "घन गरज कर" उपदेश और शब्द-प्रकाश से बीज अंकुरित होता है। यहाँ "शब्द" का अर्थ है—राम नाम, सुरति-शब्द-योग और गुरु वाणी
  • जैसे वर्षा के बाद धरती से अंकुर फूटते हैं, वैसे ही गुरु-प्रेरणा से साधक के भीतर ईश्वर-स्मरण का अंकुर फूटता है।
  • "भई फूल फल आस" का आशय है कि गुरु-कृपा से साधक का जीवन फूलों-सा सुगंधित और फलों-सा मधुर हो जाता है, और परमात्मा-साक्षात्कार की आशा जागती है।

व्यवहारिक टिप्पणी

हम सबके भीतर आध्यात्मिक बीज मौजूद है, लेकिन वह निष्क्रिय पड़ा रहता है। जब सच्चे गुरु की वाणी और नाम-शब्द का प्रकाश मिलता है, तभी यह बीज अंकुरित होकर साधना, भक्ति और ज्ञान की ओर बढ़ता है।

  • फूल = भक्ति, प्रेम और आनंद।
  • फल = आत्म-साक्षात्कार और मुक्ति।

इसलिए यह दोहा हमें याद दिलाता है कि गुरु की वाणी को गंभीरता से सुनना और जीवन में उतारना ही हमारे भीतर के बीज को पल्लवित करने का उपाय है।


Wednesday, 27 August 2025

गुरु आये घन गरज कर।। श्री दरियाव वाणी


गुरु आये घन गरज कर , अन्तर कृपा उपाय ।
तपना से शीतल किया, सोता लिया जगाय ॥


 शब्दार्थ

  • गुरु आये → सतगुरु प्रकट हुए, जीवन में उपस्थित हुए।
  • घन गरज कर → मेघ की तरह गरजते हुए, प्रभावी वाणी के साथ।
  • अन्तर कृपा उपाय → भीतर (हृदय में) करुणा और कृपा का उपाय किया।
  • तपना → तपिश, दुखों और वासनाओं की जलन।
  • शीतल किया → ठंडक दी, शांत बनाया।
  • सोता → अज्ञान की नींद में पड़ा जीव।
  • जगाय → जाग्रत किया, चेतना में लाया।

 भावार्थ

महाराजश्री कहते हैं कि जब मैं संसारिक मोह-माया, वासनाओं और दुःख की तपिश से जल रहा था, तब मेरे जीवन में सतगुरु का आगमन हुआ। गुरुदेव की प्रभावशाली वाणी (गरज) ने मेरे हृदय को भेद दिया और कृपा-वर्षा से मुझे शीतलता प्रदान की। अनेक जन्मों से मैं अज्ञान की नींद में सोया था, सतगुरु ने मुझे जगा दिया और आत्मज्ञान की ओर मोड़ दिया।


 व्याख्या

इस दोहे में सतगुरु की कृपा को बरसते बादल के समान बताया गया है। जिस प्रकार तपती हुई धरती वर्षा से हरी-भरी हो जाती है, उसी प्रकार संसार की तपिश में जलता हुआ जीव सतगुरु के वचन और कृपा से शान्त हो जाता है।

  • "घन गरज कर" का आशय है कि गुरु का उपदेश केवल मधुर ही नहीं होता, कभी-कभी वह झकझोरने वाला भी होता है, ताकि शिष्य की नींद टूटे।
  • "तपना" हमारे मन की अशान्ति, वासनाएँ और मोह हैं।
  • "शीतल किया" से तात्पर्य है कि गुरु ने हमें परमात्मा के नाम से जोड़ा, जिससे हृदय में शांति और आनन्द का अनुभव हुआ।
  • "सोता लिया जगाय" का अर्थ है कि जो जीव अनादि काल से आत्मज्ञान से दूर सोया हुआ था, गुरु ने उसे जाग्रत कर दिया।

 व्यवहारिक टिप्पणी

आज भी मनुष्य चिंता, तनाव, इच्छाओं और मोह की तपिश से पीड़ित है। हमें लगता है कि धन, पद या सुविधा से यह तपिश दूर हो जाएगी, लेकिन असली शांति भीतर से आती है। जब सच्चे गुरु की वाणी और मार्गदर्शन हमारे जीवन में प्रवेश करता है, तभी हृदय शीतल होता है और सच्ची जागृति मिलती है। इस दोहे का संदेश यही है कि जीवन की तपन को दूर करने का उपाय केवल सतगुरु की कृपा और उनके उपदेश का अनुसरण है।


Tuesday, 26 August 2025

जैसे सतगुरु तुम करी ।। श्री दरियाव वाणी


जैसे सतगुरु तुम करी , मुझसे कछु न होय ।
विष भांडे विष काढ कर , दिया अमीरस मोय ॥ 


❖ शब्दार्थ

  • जैसे सतगुरु तुम करी = जैसा उपकार आपने किया
  • मुझसे कछु न होय = मैं उसका प्रतिदान करने में असमर्थ हूँ
  • विष भांडे = शरीररूपी बर्तन जो वासनाओं और अज्ञान से भरा है
  • विष काढ कर = उस जहर (अज्ञान, वासनाएँ, विकार) को दूर करके
  • अमीरस = राम-नाम रूपी अमृतरस, जीवनदायी अमृत

❖ भावार्थ

आचार्यश्री कहते हैं – हे सतगुरुदेव! आपने मेरे लिए बहुत उपकार किया है, परन्तु इसके बदले मैं आपको कुछ भी लौटा नहीं सकता। यह शरीर मानो ज़हर से भरा हुआ बर्तन था। गुरूदेव ने उस ज़हर को निकालकर मुझे राम-नाम रूपी अमृत का पान कराया।


❖ व्याख्या

  • सतगुरु का उपकार अनंत और अप्रतिदेय है। शिष्य चाहे कितना भी प्रयास करे, गुरु की दया का ऋण कभी चुका नहीं सकता।
  • मनुष्य का शरीर और मन जब तक विकारों, अहंकार और अज्ञान से भरे रहते हैं, तब तक वह विष के पात्र के समान है।
  • गुरु ही उस विष को निकालकर साधक को नाम-रस का अमृत प्रदान करते हैं, जिससे उसका जीवन पवित्र और आनंदमय हो जाता है।
  • यहाँ यह भी संदेश है कि आत्मिक यात्रा में सब कुछ गुरु की कृपा से संभव होता है, न कि शिष्य के बल से।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें यह सिखाता है कि —

  1. गुरु कृपा ही सबसे बड़ा धन है, जिसका उपकार कोई साधक नहीं चुका सकता।
  2. हमारा मन और शरीर तब तक विषमय है जब तक उसमें गुरु का नाम और उपदेश न उतरे।
  3. राम-नाम रूपी अमृत ही वह औषधि है जो जीवन को न केवल शुद्ध करता है बल्कि अमर आनंद से भर देता है।


Monday, 25 August 2025

शब्द गहा सुख ऊपजा ।। श्री दरियाव वाणी


शब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेशा मोहि ।
सतगुरु ने कृपा करि, खिड़की दीनी खोहि ॥ 


❖ शब्दार्थ

  • शब्द गहा = सतगुरु का उपदेश/नाम ग्रहण करना
  • सुख ऊपजा = हृदय में आनंद उत्पन्न हुआ
  • अंदेशा = संशय, शंका, भ्रम
  • मोहि गया = मुझसे वह शंका दूर हो गई
  • खिड़की दीनी खोहि = गुरु ने ज्ञान का द्वार खोल दिया, आत्मदर्शन का मार्ग दिखाया

❖ भावार्थ

महाराजश्री कहते हैं कि मैंने सतगुरु का उपदेश अपने हृदय में धारण कर लिया।
ज्यों ही यह शब्द भीतर बसा, मेरे सारे संदेह और भ्रम मिट गए।
सतगुरु की कृपा से ज्ञान की खिड़की खुल गई और मुझे परमात्मा का सच्चा स्वरूप देखने-समझने का अवसर मिला।


❖ व्याख्या

  • सतगुरु का शब्द साधक के भीतर शांति और आनंद का संचार करता है।
  • जब हृदय में गुरु का उपदेश उतरता है, तो सारे संशय मिट जाते हैं, क्योंकि शंका केवल अज्ञान की देन है।
  • खिड़की यहाँ प्रतीक है — आत्मज्ञान की, जिससे साधक को ईश्वर का प्रकाश दिखाई देने लगता है।
  • सतगुरु का कार्य यही है कि वे साधक की भीतरी आँख खोल दें, ताकि सत्य स्वरूप का अनुभव हो सके।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें सिखाता है कि —

  1. केवल गुरु का शब्द ही हमारे अज्ञान और संशयों को दूर कर सकता है।
  2. जब भीतर की खिड़की (ज्ञान-दृष्टि) खुलती है, तब साधक को आत्मानुभव होता है।
  3. सच्चा सुख बाहर नहीं, बल्कि भीतर के प्रकाश और स्थिरता में मिलता है।


Sunday, 24 August 2025

रंजी शास्त्र ज्ञान की ।। Sri Dariyav Vani


रंजी शास्त्र ज्ञान की, अंग रही लिपटाय ।
सतगुरु एकहि शब्द से, दीन्ही तुरत उड़ाय ॥ 


❖ शब्दार्थ

  • रंजी = मिट्ठी के सूक्ष्म कण जो हवा उड़ते है, दाग या परत
  • शास्त्र ज्ञान की रंजी = शास्त्रों के ज्ञान का अहंकार या बाहरी परत
  • अंग रही लिपटाय = शरीर और मन पर अहंकार की परत लिपटी रहना
  • सतगुरु एकहि शब्द = सतगुरु का संक्षिप्त और सारभूत उपदेश
  • तुरत उड़ाय = क्षणभर में मिटा दिया, नष्ट कर दिया

❖ भावार्थ

महाराजश्री कहते हैं कि मेरे भीतर शास्त्रों के ज्ञान का अभिमान चिपका हुआ था। मुझे लगता था कि बहुत जानता हूँ, बहुत समझता हूँ।
लेकिन जब सतगुरु ने एक ही शब्द (सच्चा उपदेश) दिया, तो मेरे ज्ञानाभिमान की यह परत तुरन्त ही उड़ गई और मैं विनम्र होकर सत्य की ओर अग्रसर हुआ।


❖ व्याख्या

  • ज्ञान का अहंकार: केवल शास्त्र पढ़ लेने या तर्क करने से आत्मज्ञान नहीं होता। कई बार यह दिखावटी ज्ञान साधक को और भी बाँध देता है।
  • सतगुरु की शक्ति: सतगुरु के शब्द में इतनी सामर्थ्य होती है कि वह साधक के भीतर जमा हुआ अभिमान तुरंत तोड़ देता है।
  • विनम्रता का उदय: जब अहंकार मिटता है तो साधक शुद्ध हृदय से गुरु और ईश्वर की भक्ति में प्रवृत्त हो जाता है।
  • सच्चा ज्ञान: वास्तविक ज्ञान केवल गुरु की कृपा और उनके शब्द से ही प्राप्त होता है, न कि केवल पुस्तकों से।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें सिखाता है कि —

  1. शास्त्र और ज्ञान उपयोगी हैं, परंतु अहंकार के साथ वे आत्म-विकास में बाधा बन जाते हैं।
  2. सतगुरु का उपदेश अहंकार की परत को मिटाकर आत्मा को शुद्ध और सरल बना देता है।
  3. विनम्रता ही सच्चे ज्ञान का द्वार है

Saturday, 23 August 2025

दरिया गुरु पूरा मिला।। श्री दरियाव वाणी


दरिया गुरु पूरा मिला, नाम दिखाया नूर ।
निसा गई सुख ऊपजा , किया निसाना दूर ॥ 


❖ शब्दार्थ

  • गुरु पूरा मिला = सिद्ध गुरु, सच्चे ज्ञानी सतगुरु का मिलना
  • नाम दिखाया नूर = नाम का प्रकाश दिखाया, हरि-नाम से आत्मा प्रकाशित हुई
  • निसा गई = अज्ञान की रात्रि समाप्त हुई
  • सुख ऊपजा = अंतर में आनंद, शांति और संतोष उत्पन्न हुआ
  • निसाना दूर = लक्ष्य स्पष्ट हुआ, भटकाव और मोह दूर हुए

❖ भावार्थ

महाराजश्री दरियावजी कहते हैं कि जब मुझे सच्चे और पूरे सतगुरु मिले, तब उन्होंने हरि-नाम का ऐसा नूर (प्रकाश) दिखाया कि मेरे अज्ञान रूपी अंधकार की रात समाप्त हो गई।
उस क्षण हृदय में सुख और शांति उत्पन्न हुई, और जीवन का वास्तविक लक्ष्य स्पष्ट हो गया, सारी भटकन मिट गई।


❖ व्याख्या

  • सच्चे गुरु का मिलना: संसार में अनेक मार्ग हैं, परंतु केवल "पूरा सतगुरु" ही सही दिशा दिखा सकता है। उनका मार्गदर्शन साधक को भ्रम और अज्ञान से निकालकर सत्य की ओर ले जाता है।
  • नाम का नूर: हरि-नाम केवल शब्द नहीं है, बल्कि एक दिव्य प्रकाश है जो आत्मा को प्रकाशित करता है और उसे परमात्मा से जोड़ता है।
  • अज्ञान की रात्रि का अंत: गुरु-उपदेश से साधक के भीतर का अंधकार (संदेह, मोह, असत्य) समाप्त हो जाता है।
  • सुख और शांति: जब हृदय में नाम-नूर प्रकट होता है, तो साधक आत्मिक आनंद और स्थिर शांति का अनुभव करता है।
  • लक्ष्य का स्पष्ट होना: गुरु की कृपा से साधक जान लेता है कि जीवन का सच्चा ध्येय ईश्वर-प्राप्ति है, और वह भटकाव से मुक्त होकर उस दिशा में बढ़ने लगता है।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें सिखाता है कि —

  1. केवल सच्चा और सिद्ध गुरु ही जीवन के अंधकार को दूर कर सकता है।
  2. हरि-नाम आत्मा का दीपक है, जो भीतर ज्ञान और सुख का प्रकाश फैलाता है।
  3. जब अज्ञान मिट जाता है तो जीवन का लक्ष्य (ईश्वर-प्राप्ति) साधक के सामने स्पष्ट हो जाता है।


Friday, 22 August 2025

दरिया सतगुरु कृपा करि ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु कृपा करि , शब्द लगाया एक ।
लागत ही चेतन भया , नेत्तर खुला अनेक ।।


❖ शब्दार्थ

  • सतगुरु कृपा करि = गुरु की अनुकंपा से
  • शब्द लगाया = उपदेश दिया, नाम का बीज बोया
  • लागत ही = लगते ही, सुनते ही
  • चेतन भया = जाग्रत हो गया, आत्मज्ञान प्राप्त हुआ
  • नेत्तर खुला अनेक = ज्ञान के अनेक नेत्र खुल गए, रोम-रोम में प्रकाश हो गया

❖ भावार्थ

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सतगुरु ने कृपा करके जब एक ही शब्द (राम-नाम का उपदेश) दिया, तो तुरंत मेरे भीतर चेतना जाग उठी।
उस नाम-स्मरण की शक्ति से मेरे भीतर ज्ञान के अनगिनत द्वार खुल गए और रोम-रोम में प्रकाश का अनुभव होने लगा।


❖ व्याख्या

  • गुरु की कृपा: साधक का जीवन केवल प्रयास से नहीं बदलता, जब तक सतगुरु की कृपा न हो। एक बार कृपा हो जाए तो एक शब्द ही जीवन को बदल देता है।
  • नाम की शक्ति: हरि-नाम ऐसा बीज है जो हृदय में पड़ते ही तुरंत चेतना को जाग्रत करता है।
  • आंतरिक ज्योति: यह ज्ञान बाहरी आँखों से दिखाई नहीं देता, बल्कि आंतरिक नेत्रों (बुद्धि और आत्मज्ञान) के खुलने से जीव को स्वयं में प्रकाश का अनुभव होता है।
  • अनेक नेत्रों का खुलना: इसका अर्थ है कि साधक का दृष्टिकोण बदल जाता है — वह अब वस्तुओं को बाहरी रूप से नहीं, बल्कि सत्य और आत्मिक दृष्टि से देखना प्रारंभ करता है।

❖ टिप्पणी

यह दोहा बताता है कि —

  1. सतगुरु का एक ही उपदेश शिष्य के जीवन की दिशा बदल देता है।
  2. ज्ञान के नेत्र खुलने का अर्थ है कि साधक अब अज्ञान की नींद से जागकर सत्य को पहचानता है।
  3. रोम-रोम में ज्योति का अनुभव आत्मिक जागृति का प्रतीक है।
  4. यह शिक्षा है कि सच्चे गुरु की कृपा मिलते ही साधक को आत्मानुभूति हो सकती है।


Thursday, 21 August 2025

सतगुरु शब्दाँ मिट गया।। श्री दरियाव वाणी


सतगुरु शब्दाँ मिट गया, दरिया संसय सोग ।
औसद दे हरि नाम का, तन मन किया निरोग ।।


❖ शब्दार्थ

  • सतगुरु शब्दाँ = गुरु के वचनों से / गुरु उपदेश से
  • मिट गया = समाप्त हो गया
  • संसय = संदेह, भ्रम
  • सोग = शोक, दुःख
  • औसद = औषधि, दवा
  • हरि नाम का = भगवान का नाम-स्मरण
  • तन मन निरोग = शरीर और मन रोगमुक्त, शुद्ध और स्वस्थ

❖ भावार्थ

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सतगुरु के वचनों को सुनते ही मेरे संदेह और शोक जैसे रोग समाप्त हो गए।
गुरु ने मुझे हरि-नाम की औषधि दी, जिससे मेरा तन और मन दोनों निरोग होकर शांत, शुद्ध और प्रसन्न हो गए।


❖ व्याख्या

  • संसार के रोग: मनुष्य के जीवन में सबसे बड़े रोग हैं — संदेह, भय, मोह और शोक। ये मन और बुद्धि को कमजोर कर देते हैं।
  • गुरु का वचन औषधि: जैसे चिकित्सक उचित दवा देकर रोगी को स्वस्थ करता है, वैसे ही सतगुरु "हरि-नाम" रूपी औषधि देकर शिष्य के आंतरिक रोगों को दूर कर देते हैं।
  • हरि-नाम का प्रभाव: जब जीव नाम-स्मरण करता है, तो उसके भीतर शांति, विश्वास और आनंद का उदय होता है। तन भी हल्का और निरोगी प्रतीत होता है।
  • संपूर्ण स्वास्थ्य: यहाँ निरोग होने का तात्पर्य केवल शारीरिक नहीं है, बल्कि मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य भी है — मन का भय, संदेह और शोक मिटकर आत्मा स्वस्थ और स्थिर हो जाती है।

❖ टिप्पणी

यह दोहा यह संदेश देता है कि —

  1. संसार के रोग बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक हैं — संदेह और शोक।
  2. सतगुरु का वचन ही ऐसी औषधि है जो इन रोगों का नाश कर सकती है।
  3. "हरि-नाम" ही अमृत है, जो तन-मन को वास्तविक स्वास्थ्य प्रदान करता है।
  4. जहाँ हरि-नाम है, वहाँ संशय और दुख का कोई स्थान नहीं है।


Wednesday, 20 August 2025

सोता था बहु जन्म का।। श्री दरियाव वाणी


सोता था बहु जन्म का, सतगुरु दिया जगाय ।
जन दरिया गुरू शब्द सौं, सब दुख गये बिलाय।।


❖ शब्दार्थ

  • सोता था = अज्ञान और मोह में डूबा हुआ
  • बहु जन्म का = अनेक जन्मों से
  • सतगुरु दिया जगाय = सतगुरु ने कृपा करके जगाया
  • शब्द = सतगुरु का उपदेश, नाम-स्मरण
  • दुख गये बिलाय = सारे कष्ट और क्लेश दूर हो गए

❖ भावार्थ

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि मैं अनेक जन्मों से अज्ञान और मोह की नींद में सोया हुआ था।
सतगुरु ने कृपा करके मुझे उस निद्रा से जगाया।
जब गुरु ने अपना दिव्य शब्द प्रदान किया, तो मेरे जीवन के सारे दुख और बंधन समाप्त हो गए।


❖ व्याख्या

  • अज्ञान की निद्रा: जीव अनंत जन्मों से संसार में मोह, माया, वासनाओं और भ्रमों में सोया रहता है। उसे आत्मज्ञान या प्रभु का स्मरण नहीं होता।
  • गुरु का जागरण: जैसे माँ सोते हुए शिशु को धीरे-धीरे जगाती है, वैसे ही सतगुरु शिष्य को करुणा और शब्द द्वारा जगाते हैं।
  • शब्द की शक्ति: सतगुरु का वचन केवल शिक्षा नहीं है, वह संजीवनी शक्ति है जो सोई हुई आत्मा को जाग्रत कर देती है।
  • दुखों का नाश: जब जीव सतगुरु का शब्द धारण करता है, तो कर्म, मोह और अज्ञान के कारण उत्पन्न दुख मिट जाते हैं। उसे आंतरिक शांति और आनंद का अनुभव होने लगता है।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें यह सिखाता है कि —

  1. संसार की नींद बहुत गहरी है; इसे केवल सतगुरु ही जगा सकते हैं।
  2. गुरु का शब्द सुनकर ही आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानती है।
  3. दुखों का वास्तविक कारण अज्ञान है, और उसका अंत ज्ञान (गुरु उपदेश) से होता है।
  4. जैसे सूर्य के उदय से अंधकार मिटता है, वैसे ही गुरु-शब्द से शिष्य का जीवन आलोकित हो जाता है।


Tuesday, 19 August 2025

नहीं था राम रहीम का ।। श्री दरियाव वाणी


नहीं था राम रहीम का, मैं मतहीन अजान ।
दरिया सुध बुध ज्ञान दे, सतगुरु किया सुजान।।


❖ शब्दार्थ

  • राम रहीम = प्रभु का नाम, ईश्वर (हिन्दू-मुस्लिम दोनों का प्रतीक)
  • मतहीन = बिना विवेक वाला, मूर्ख
  • अजान = अज्ञानी, अचेत
  • सुध बुध = समझ-बूझ, चेतना
  • ज्ञान दे = आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करना
  • सुजान = ज्ञानी, विवेकशील, जागृत

❖ भावार्थ

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि मैं पहले राम या रहीम किसी को भी नहीं मानता था।
मैं पूर्ण अज्ञानी और विवेकहीन था।
परंतु सतगुरु ने मुझ पर कृपा कर मुझे सुध-बुध (आध्यात्मिक चेतना) दी और मुझे सुजान, अर्थात विवेकशील और ईश्वराभिमुख बना दिया।


❖ व्याख्या

  • अज्ञान की अवस्था: यह दोहा उस स्थिति का चित्रण करता है जब मनुष्य ईश्वर और धर्म से दूर होता है। वह न राम को जानता है, न रहीम को — अर्थात उसका जीवन आध्यात्मिक शून्यता में बीत रहा होता है।
  • सतगुरु की कृपा: ऐसे अज्ञानी और अयोग्य को भी सतगुरु त्यागते नहीं, बल्कि उस पर करुणा करके मार्गदर्शन देते हैं।
  • ज्ञान का संचार: सतगुरु का उपदेश सुनकर मनुष्य में चेतना जागृत होती है। उसे विवेक मिलता है और वह सही-गलत का भेद जानने लगता है।
  • सुजान अवस्था: जहाँ पहले मनुष्य मतहीन और अजान था, वहीं अब सतगुरु कृपा से सुजान हो जाता है। यह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

❖ टिप्पणी

यह दोहा यह संदेश देता है कि —

  1. चाहे मनुष्य कितना भी अज्ञानी या अयोग्य क्यों न हो, सतगुरु की कृपा उसे ईश्वर-मार्ग पर ला सकती है।
  2. राम और रहीम दोनों एक ही सत्य के प्रतीक हैं; लेकिन उन्हें जानना गुरु की कृपा से ही संभव है।
  3. सच्चा गुरु शिष्य को अज्ञान से ज्ञान और अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है।
  4. जब गुरु कृपा होती है, तब सबसे अयोग्य भी सुजान बन जाता है।


Monday, 18 August 2025

दरिया सतगुरु शब्द सौं।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु शब्द सौं, गत मत पलटै अंग ।
करम काल मन का मिटा, हरि भज भये सुरंग।।


❖ शब्दार्थ

  • सतगुरु शब्द = गुरु का उपदेश / राम-नाम का मंत्र
  • गत मत पलटै अंग = पुरानी विचारधारा व आचरण बदलना
  • करम = सांसारिक बंधन, कर्मफल
  • काल = मृत्यु-भय, समय का बंधन
  • मन का मिटा = मन के विकारों का नाश
  • सुरंग = देवतुल्य, निर्मल और उज्ज्वल

❖ भावार्थ

संत दरियावजी महाराज कहते हैं कि सतगुरु के शब्द-उपदेश से मेरी पुरानी बुद्धि और गलत जीवन-दृष्टि बदल गई।
गुरु कृपा से मेरे मन का कर्म-बंधन और काल-भय नष्ट हो गया।
इसके फलस्वरूप मेरा हृदय हरि-भक्ति में रम गया और मैं देवतुल्य निर्मल हो गया।


❖ व्याख्या

  • गुरु शब्द की शक्ति: सतगुरु का दिया हुआ नाम और उपदेश साधक के जीवन का पूर्ण कायाकल्प कर देता है।
  • बुद्धि का परिवर्तन: जहाँ पहले मनुष्य सांसारिक मोह और कर्मों में फंसा रहता है, वहाँ गुरु का उपदेश उसे सही मार्ग दिखाता है।
  • कर्म और काल का क्षय: सतगुरु शब्द के अभ्यास से साधक के मन में छिपे कर्मफल का प्रभाव तथा मृत्यु का भय मिट जाता है।
  • भक्ति की प्राप्ति: जब कर्म और काल के बंधन टूटते हैं, तब हृदय में केवल प्रभु की भक्ति और प्रेम ही रह जाते हैं।
  • सुरंग अवस्था: ‘सुरंग’ का तात्पर्य है — देवतुल्य, प्रकाशमय और निर्मल जीवन। अर्थात गुरु का शिष्य सांसारिक जंजाल से ऊपर उठकर दिव्य जीवन जीने लगता है।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें सिखाता है कि —

  1. सतगुरु शब्द ही जीवन-परिवर्तन की कुंजी है।
  2. गुरु की कृपा से मनुष्य की जड़ सोच बदलकर उसे आध्यात्मिक दृष्टि मिलती है।
  3. कर्म और काल से मुक्ति पाकर साधक सच्चे अर्थों में भक्ति और शांति का अनुभव करता है।
  4. ऐसा साधक देवताओं के समान निर्मल और प्रकाशमय हो जाता है।


Sunday, 17 August 2025

जन दरिया सतगुरु मिला ।। श्री दरियाव वाणी


जन दरिया सतगुरु मिला, कोई पुरूवले पुन्न ।
जड़ पलट चेतन किया, आन मिलाया सुन्न।। 


❖ शब्दार्थ

  • जन दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • पुरूवले पुन्न = पूर्वजन्म का पुण्य
  • जड़ = अचेतन, ज्ञान-विहीन अवस्था
  • चेतन = जीवित ज्ञान, जागरूकता
  • सुन्न = शून्य, परमधाम, निर्विकल्प अवस्था

❖ भावार्थ

संत दरियावजी महाराज कहते हैं कि यह मेरे पूर्वजन्मों के पुण्य का ही फल है कि मुझे सतगुरु प्राप्त हुए।
सतगुरु ने मेरे जड़ और अज्ञानयुक्त जीवन को चेतना से भर दिया और अंततः मुझे सुन्न रूपी परमधाम में मिला दिया।


❖ व्याख्या

  • गुरु की दुर्लभ प्राप्ति: यह मान्यता है कि सतगुरु की प्राप्ति सहज नहीं होती। इसके लिए कई जन्मों के पुण्य आवश्यक होते हैं।
  • जड़ से चेतन की यात्रा: मनुष्य जब तक गुरु से न जुड़ा हो, वह जड़वत — केवल भौतिक जीवन जीने वाला होता है। गुरु की कृपा से वही साधक चेतन, जागरूक और आत्म-ज्ञान से युक्त हो जाता है।
  • सुन्न में मिलन: गुरु का कार्य केवल अज्ञान को दूर करना ही नहीं, बल्कि साधक को परम शांति, निर्विकल्प अवस्था — ‘सुन्न’ में स्थापित करना भी है।
  • परम अवस्था: यहाँ "सुन्न" का अर्थ शून्यता या रिक्तता नहीं, बल्कि वह स्थिति है जहाँ मन, वासनाएँ और द्वैत सब लीन होकर आत्मा परमात्मा से एकाकार हो जाती है।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें बताता है कि —

  1. गुरु-प्राप्ति दुर्लभ है और यह तभी संभव होती है जब पूर्व जन्मों के पुण्य प्रबल हों।
  2. गुरु साधक के जीवन को जड़ता से चेतना की ओर मोड़ते हैं।
  3. गुरु अंततः साधक को उस परम शांति (सुन्न अवस्था) में ले जाते हैं जहाँ सभी द्वंद्व मिट जाते हैं और केवल आत्मिक शांति रहती है।


Friday, 15 August 2025

जन दरिया गुरूदेवजी ।। Sri Dariyav Vani


जन दरिया गुरूदेवजी , सब विधि दई बताय ।
जो चाहो निजधाम को , तो सांस उँसासौं ध्याय।।


❖ शब्दार्थ

  • जन दरिया = स्वयं दरियावजी महाराज
  • गुरूदेवजी = सतगुरु, आध्यात्मिक मार्गदर्शक
  • सब विधि = सभी साधन, सभी उपाय
  • निजधाम = अपना असली धाम, मोक्ष, परमधाम
  • सांस उँसासौं ध्याय = हर सांस के साथ स्मरण करना, श्वास-प्रश्वास में नाम जपना

❖ भावार्थ

संत दरियावजी महाराज कहते हैं कि गुरुदेव ने मोक्ष प्राप्ति के सभी उपाय बता दिए हैं।
यदि तुम्हारा लक्ष्य अपने निजधाम (परम धाम) को पाना है, तो हर सांस में राम नाम का ध्यान करना ही मुख्य साधना है।
जब जप श्वास-प्रश्वास में बस जाता है, तब जीवन अपने आप मोक्ष की दिशा में बढ़ता है।


❖ व्याख्या

  • गुरूदेव का मार्गदर्शन: सतगुरु न केवल मार्ग बताते हैं, बल्कि साधक के लिए सही साधन भी स्पष्ट करते हैं। यहाँ वे "सांस-उँसास में ध्यान" को सर्वोत्तम साधना बताते हैं।
  • सांस का महत्व: सांस जीवन का मूल है। यदि हर श्वास के साथ नाम जपे, तो नाम स्मरण निरंतर हो जाता है और भटकाव की गुंजाइश नहीं रहती।
  • एक लक्ष्य: "निजधाम" प्राप्ति के लिए मन को भटकने नहीं देना, बल्कि एकमात्र लक्ष्य — मोक्ष — पर टिकाना आवश्यक है।
  • निरंतरता: यह साधना दिन-रात, जागते-सोते, चलते-फिरते, हर समय हो सकती है, क्योंकि सांस हमेशा चलती रहती है।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें तीन बातें सिखाता है:

  1. गुरु का उपदेश तभी सफल होता है, जब उसे जीवन में अपनाया जाए।
  2. सांस-उँसास में नाम जप सर्वोच्च और सरलतम साधना है।
  3. जो साधक इसे अपनाता है, उसके लिए मोक्ष कोई दूर की बात नहीं रहती — वह जीवन रहते-रहते मुक्ति का अनुभव करने लगता है।


Thursday, 14 August 2025

तीन लोक को बीज है ।। श्री दरियाव वाणी


तीन लोक को बीज है, ररो ममो दोई अंक ।
दरिया तन मन अर्प के, पीछे होय निसंक।।


❖ शब्दार्थ

  • तीन लोक = भू लोक, भुवर लोक, स्वर्ग लोक (संसार के तीन स्तर)
  • बीज = मूल कारण, सृष्टि की जड़
  • ररो ममो दोई अंक = ‘र’ और ‘म’ अक्षर (राम शब्द के दो प्रमुख अक्षर)
  • तन मन अर्प = शरीर और मन को पूर्ण रूप से समर्पित करना
  • निसंक = निडर, भयमुक्त

❖ भावार्थ

संत दरियावजी कहते हैं कि ‘र’ और ‘म’ — ये दो अक्षर मिलकर राम नाम बनाते हैं, जो तीनों लोकों का मूल बीज है।
गुरुदेव ने मुझे यही राम नाम रूपी संजीवनी दी।
जब साधक तन-मन को पूरी तरह गुरु के चरणों में अर्पित कर देता है, तो वह संसार और मृत्यु के सभी भय से मुक्त हो जाता है।


❖ व्याख्या

  • ररो ममो दोई अंक का अर्थ है — ‘र’ और ‘म’, ये दो अक्षर केवल भाषा के अक्षर नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय ऊर्जा के प्रतीक हैं। इनका उच्चारण और ध्यान मन को आत्मा के मूल स्रोत से जोड़ देता है।
  • राम नाम तीन लोक का बीज है — अर्थात यह नाम ही सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार का आधार है।
  • जब साधक अपने तन और मन को गुरु के चरणों में अर्पण करता है, तो उसका अहंकार, भय और संदेह समाप्त हो जाते हैं।
  • निसंक स्थिति वही है, जिसमें साधक को संसार, मृत्यु या पुनर्जन्म का कोई भय नहीं रहता, क्योंकि वह राम नाम की शरण में है।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें तीन मुख्य बातें सिखाता है:

  1. राम नाम केवल भक्ति का साधन नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड का बीज है।
  2. गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण के बिना नाम का वास्तविक फल नहीं मिलता।
  3. समर्पित साधक भयमुक्त और निडर जीवन जीता है।

Wednesday, 13 August 2025

दरिया मिरतक देख कर ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया मिरतक देख कर, सतगुरु कीनि रींझ ।
नाम संजीवन मोहिं दिया, तीन लोक को बीज।।


❖ शब्दार्थ:

  • मिरतक = मृतक, आध्यात्मिक दृष्टि से मृत (जिसमें भक्ति, ज्ञान, सत्संग का जीवन न हो)
  • सतगुरु = परम गुरु, जो सत्य का अनुभव कराएँ
  • रींझ = रीझना, प्रसन्न होकर कृपा करना, दया का भाव
  • नाम संजीवन = सत नाम, वह नाम जो आत्मा को जीवित करता है, अमरत्व देने वाला
  • तीन लोक = भू लोक, भुवर लोक, स्वर्ग लोक (संसार के तीन स्तर)
  • बीज = मूल कारण, जीवन का सार, मोक्ष का आधार

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि जब गुरु ने मुझे आध्यात्मिक रूप से मृत देखा, तो वे मुझ पर रीझकर प्रसन्न हुए।
उन्होंने मुझे राम नाम की संजीवनी दी — जो मेरी आत्मा को पुनः जीवित कर दे।
यह नाम इतना प्रभावशाली है कि वह तीनों लोकों का सार और मूल बीज है, जिससे सबका पालन-पोषण होता है और जो मुक्ति का द्वार खोलता है।


❖ व्याख्या:

  • मिरतक देख कर का अर्थ है — वह साधक जो अज्ञान, लोभ, मोह और माया में इतना डूबा हो कि उसका आत्मिक जीवन समाप्त हो गया हो।
  • सतगुरु का हृदय करुणा से भर जाता है और वे बिना पात्रता देखे भी कृपा कर देते हैं — इसे रींझना कहा गया है।
  • राम नाम संजीवन यहाँ केवल एक मंत्र नहीं, बल्कि वह दिव्य शक्ति है जो आत्मा को पुनः उसकी मूल चेतना में जाग्रत कर देती है।
  • तीन लोक का बीज का अर्थ है — यह नाम ब्रह्मांड का मूल तत्व है। इससे ही सबका उत्पत्ति, पालन और संहार होता है।
  • राम नाम को ग्रहण कर लेने वाला साधक मृत्यु, जन्म और संसार के चक्र से ऊपर उठ जाता है।

❖ टिप्पणी:

यह दोहा हमें बताता है:
👉 गुरु की कृपा पात्रता से नहीं, प्रेम से मिलती है।
👉 राम नाम केवल सांसारिक सुख का साधन नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि का मूल बीज है।
👉 आध्यात्मिक रूप से मृत व्यक्ति भी गुरु कृपा से पुनः जीवित हो सकता है।


Tuesday, 12 August 2025

दरिया गुरु गरूवा मिला ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया गुरु गरूवा मिला, कर्म किया सब रद्द ।
झूठा भर्म छुड़ाय कर, पकड़ाया सत शब्द।। 


❖ शब्दार्थ:

  • गुरु गरूवा = महान सतगुरु, आध्यात्मिक मार्गदर्शक
  • कर्म किया सब रद्द = संचित व प्रलंबित कर्मों को निष्फल कर दिया
  • झूठा भर्म = असत्य विचार, माया का भ्रम
  • छुड़ाय कर = छुड़ाकर, मुक्त करके
  • सत शब्द = सच्चा नाम, राम नाम, परम सत्य का मंत्र

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि जब मुझे महान सतगुरु मिले, तो उन्होंने मेरे कर्म बंधनों को समाप्त कर दिया।
उन्होंने मुझे माया और असत्य के भ्रम से मुक्त किया और राम का नाम — ‘सत शब्द’ का आश्रय दिया।
जब साधक दुनिया को असत्य समझकर सत नाम का सहारा लेता है, तब वह सच्चे सुख और शांति को प्राप्त कर लेता है।


❖ व्याख्या:

यह दोहा गुरु की कृपा और सत शब्द की महिमा को दर्शाता है।

  • गुरु गरूवा शब्द यहाँ विशेष महत्व रखता है — यह केवल सामान्य गुरु नहीं, बल्कि वह महान सतगुरु हैं जो आत्मा को परम सत्य तक पहुँचा देते हैं।
  • जब गुरु मिलते हैं, तो उनके ज्ञान और कृपा से हमारे कर्म बंधन (संचित, प्रारब्ध, और क्रियमान) का प्रभाव नष्ट होने लगता है।
  • संसार में जो हम देखते हैं — धन, मान, पद, संबंध — वह सब क्षणभंगुर है; इसे भ्रम कहा गया है।
  • गुरु इस झूठे भ्रम से हमें बाहर निकालते हैं और हमें सत शब्द (राम नाम) प्रदान कर देते हैं, जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करने वाला है।
  • ‘सत शब्द’ यहाँ केवल उच्चारण नहीं, बल्कि वह दिव्य अनुभूति है जो आत्मा को स्थायी सुख में स्थापित करती है।

❖ टिप्पणी:

यह वाणी एक गहरा सत्य सिखाती है:
👉 गुरु के बिना ‘सत शब्द’ की पहचान नहीं हो सकती।
👉 संसार के भ्रम को असत्य समझना ही मुक्ति की शुरुआत है।
👉 राम का नाम ही वह सच्चा सहारा है, जो न जन्म में छूटता है और न मृत्यु में।

यह दोहा हमें याद दिलाता है कि जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य है — सतगुरु मिलना और सत शब्द का आश्रय पाना


Friday, 8 August 2025

डूबत रहा भव सिंधु में।। श्री दरियाव वाणी


डूबत रहा भव सिंधु में, लोभ मोह की धार ।
दरिया गुरु तैरू मिला, कर दिया परले पार।। 


❖ शब्दार्थ:

  • डूबत रहा = डूब रहा था, असहाय स्थिति में
  • भव सिंधु = संसार रूपी सागर (जन्म-मरण का चक्र)
  • लोभ = लालच, अधिक पाने की वासना
  • मोह = आसक्ति, ममता, माया का बंधन
  • धार = बहाव, धारा
  • गुरु तैरू = नाविक स्वरूप गुरु, जो पार उतारने वाले हैं
  • परले पार = मुक्ति, परम लक्ष्य, मोक्ष की स्थिति

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी महाराज कहते हैं कि मैं सतगुरु के ज्ञान के बिना संसार रूपी सागर में डूब रहा था
इस सागर में लोभ और मोह की तेज धारा मुझे और गहराई में खींच रही थी।
तभी मुझे गुरु रूपी तैरू (नाविक) मिला, जिसने अपनी कृपा से मुझे भव-सागर से पार कर दिया।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में संत दरियावजी महाराज ने संसार के खतरनाक स्वभाव और गुरु की महत्ता को अत्यंत सरल, लेकिन प्रभावशाली रूप में व्यक्त किया है।

  • संसार को वे भव-सिंधु कहते हैं — एक ऐसा सागर जो जन्म और मृत्यु की लहरों से भरा है।
  • इस सागर में लोभ और मोह की धाराएं इतनी तेज हैं कि जो इनके प्रवाह में फंसता है, वह डूबता ही चला जाता है।
  • लोभ हमें बाहरी वस्तुओं के पीछे दौड़ाता है, और मोह हमें माया के बंधनों में कस देता है।
  • इस स्थिति में साधक अपने दम पर पार नहीं लग सकता — जैसे बिना नाव और नाविक के कोई समुद्र पार नहीं कर सकता।
  • लेकिन जब सतगुरु तैरू (आध्यात्मिक नाविक) मिलता है, तो वे अपने ज्ञान, नाम और कृपा से आत्मा को सुरक्षित किनारे तक पहुँचा देते हैं — अर्थात मोक्ष की स्थिति में

❖ टिप्पणी:

यह दोहा एक स्पष्ट संदेश देता है:
👉 संसार रूपी सागर में अकेले तैरना असंभव है।
👉 सतगुरु ही वह नाविक हैं जो सही दिशा, नाव और शक्ति देकर हमें परपार तक पहुँचाते हैं
👉 लोभ और मोह की धाराएं इतनी तीव्र हैं कि केवल गुरु का मार्गदर्शन ही हमें बचा सकता है।

यह वाणी हर साधक को यह स्मरण दिलाती है कि गुरु कृपा के बिना, भक्ति और मुक्ति का पार उतरना कठिन ही नहीं, असंभव है


Thursday, 7 August 2025

दरिया सतगुरु शब्द की ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु शब्द की, लागी चोट सुठौड़ ।
चंचल सो निस्चल भया , मिट गई मन की दौड़।।


❖ शब्दार्थ:

  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • सतगुरु शब्द की = सतगुरु की वाणी / उपदेश / वचन
  • चोट सुठौड़ = सही स्थान पर सीधी और प्रभावशाली चोट
  • चंचल = चपल, इधर-उधर भागने वाला (मन)
  • निश्चल = स्थिर, शांत
  • मन की दौड़ = मन का लगातार भागते रहना — इच्छाएं, कल्पनाएं, भटकाव

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि सतगुरु की वाणी ने मेरे भीतर सीधी और सटीक चोट मारी,जिसके कारण मेरा चंचल और भटकता हुआ मन स्थिर हो गया,और वह मन की लगातार भागने की दौड़, जो न जाने कितने जन्मों से चल रही थी — वह समाप्त हो गई


❖ व्याख्या:

यह दोहा आत्म-साक्षात्कार की उस गहराई को छूता है जो केवल सतगुरु की कृपा से संभव है।

  • संत दरियावजी बताते हैं कि सतगुरु की वाणी मात्र शब्द नहीं होती — वह ऐसी अंतरात्मा को झकझोरने वाली चोट होती है, जो सीधे चित्त के केंद्र पर पड़ती है।
  • इस “चोट” का अर्थ है — सतगुरु का वह उपदेश या अनुभव जो हमारी अंदर की मूल गलत धारणाओं, वासनाओं और भटकावों को तोड़ देता है।
  • जब वह चोट पड़ती है, तो मन की चंचलता — जो इंद्रियों, विचारों और इच्छाओं के पीछे भाग रही होती है — शांत हो जाती है, और साधक की आत्मा स्थिरता का अनुभव करती है
  • इस स्थिरता में ही प्रेम, भक्ति और आत्मिक शांति की नींव रखी जाती है

यह स्पष्ट संकेत करता है कि मन की दौड़, यानी “यह भी चाहिए, वह भी चाहिए, ये करो, वहां जाओ” — इस अनंत दौड़ का अंत केवल तब होता है जब सतगुरु की कृपा से भीतर जागरण होता है


❖ टिप्पणी:

इस दोहे का केंद्रीय भाव है:
👉 सतगुरु वाणी वह औषधि है जो सीधी आत्मा पर असर करती है
👉 वह मन की अशांत धारा को मोड़कर उसे निश्चल, शांत और प्रेमपूर्ण बना देती है

यह दोहा हमें बताता है कि:

  • केवल बाहरी उपदेश से कुछ नहीं होता,
  • जब वाणी हृदय में लगती है, जब सतगुरु की वाणी भीतर “सुठौड़” चोट करती है, तभी असली परिवर्तन होता है।


Wednesday, 6 August 2025

दरिया सतगुरु शब्द सौं ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु शब्द सौं , मिट गई खैंचा तान ।
भरम अंधेरा मिट गया, परसा पद निर्वान।।


❖ शब्दार्थ:

  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • सतगुरु शब्द सौं = सतगुरु के वचन / उपदेश / दिव्य वाणी से
  • खैंचा तान = मन की खींचतान, अंदरूनी द्वंद्व, सांसारिक संघर्ष
  • भरम = भ्रम, अज्ञान
  • अंधेरा = अज्ञान का अंधकार
  • परसा = प्राप्त हुआ, अनुभव हुआ
  • पद निर्वान = परमपद, आत्मशांति, मोक्ष, परमात्मा का अनुभव

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि जब मुझे सतगुरु का वाणी-रूपी उपदेश मिला, तो मन की सारी खींचतान — द्वंद्व, उलझनें, और सांसारिक झंझट — सब मिट गए।
उस वाणी ने मेरे भीतर का अज्ञान और भ्रम का अंधकार दूर कर दिया, और उसी क्षण मुझे परमपद (निर्वाण) का अनुभव हो गया।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में सतगुरु वाणी की शक्ति और उसका प्रभाव अत्यंत मार्मिक ढंग से प्रकट किया गया है।

  • संत दरियावजी अपने आत्मिक अनुभव को साझा करते हुए कहते हैं कि जब तक उन्हें सतगुरु का “शब्द” (दिव्य उपदेश, नाम, नाद) प्राप्त नहीं हुआ था, तब तक वे मन के द्वंद्व में उलझे हुए थे — यानी भीतर संसार और आत्मा के बीच खींचतान चल रही थी
  • लेकिन जैसे ही सतगुरु की कृपा से वाणी मिली, उस क्षण सारा अंदरूनी संघर्ष शांत हो गया
  • वह वाणी ऐसी शक्ति लिए थी कि उसने मनोमय और अज्ञानमय अंधकार को मिटा दिया — वह अंधकार जिसमें आत्मा जन्मों से भटक रही थी।
  • जब भ्रम मिटता है, तब ही निर्वाण पद, अर्थात शांति, स्थिरता और परमात्मा का अनुभव संभव होता है।

यह वाणी इस बात को सिद्ध करती है कि ज्ञान से अधिक प्रभावशाली होता है सतगुरु का शब्द, क्योंकि वह शब्द केवल विचार नहीं, चेतना का संचार करता है


❖ टिप्पणी:

यह दोहा उस क्षण का चित्रण है, जब साधक को सतगुरु वाणी का वास्तविक अर्थ भीतर उतरता है
वह कोई साधारण शिक्षा नहीं होती — वह आत्मा को झकझोर देने वाली, जाग्रति लाने वाली दिव्य चिंगारी होती है।

संत दरियाव जी महाराज का यह अनुभव हमें सिखाता है कि:

  • जीवन में जो भीतर का द्वंद्व है, उसका समाधान तर्क से नहीं, सतगुरु वाणी की कृपा से होता है।
  • और जब वह कृपा हो जाए, तो भ्रम, अंधकार और भय सब समाप्त हो जाते हैं, और आत्मा को मिलती है शाश्वत शांति — निर्वाण


Tuesday, 5 August 2025

जन दरिया हरि भक्ति की ।। Sri Dariyav Vani

जन दरिया हरि भक्ति की, गुरां बताई बाट ।

भूला ऊजड़ जाय था, नरक पड़न के घाट।। 


❖ शब्दार्थ:

  • जन दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • हरि भक्ति की = परमात्मा की भक्ति
  • गुरां बताई बाट = गुरु ने जो मार्ग बताया
  • भूला = भटका हुआ
  • ऊजड़ जाय था = उजड़े हुए, सुनसान, असत्य के मार्ग पर चला जा रहा था
  • नरक पड़न के घाट = नरक में गिरने का स्थान, विनाशकारी मार्ग

❖ भावार्थ:

आचार्य श्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सतगुरु ने मुझे हरि भक्ति का सही मार्ग बताया
मैं तो अज्ञानवश भटककर ऐसे उजड़े हुए रास्ते पर जा रहा था, जो अंततः नरक की ओर ले जाने वाला था
लेकिन सतगुरु की कृपा और उनके बताए मार्ग पर चलने से, मुझे भगवत-प्राप्ति का सच्चा रास्ता मिल गया


❖ व्याख्या:

यह दोहा गुरु की महिमा और मार्गदर्शन के महत्व को अत्यंत सरल, लेकिन गहन शब्दों में व्यक्त करता है।

संत दरियाव जी महाराज स्वीकार करते हैं कि:

  • बिना गुरु के मार्गदर्शन के जीव भटका हुआ रहता है, उसे यह भी नहीं पता कि वह किस दिशा में जा रहा है।
  • वे कहते हैं कि मैं तो अज्ञान रूपी अंधकार में, असत्य और मोह के मार्ग पर चला जा रहा था — एक ऐसा मार्ग जो अंततः नरक (दुःख, जन्म-मरण के चक्र) की ओर ले जाता।
  • लेकिन जब सतगुरु ने मुझे हरि भक्ति की बाट (सही दिशा) बताई, तब मेरे जीवन का मोड़ बदल गया।
  • गुरु के वचन का पालन करने से, मेरी आत्मा को वह सत्य मार्ग मिल गया, जो भगवत-प्राप्ति की ओर ले जाता है।

इस वाणी से स्पष्ट है कि सतगुरु के बिना आत्मा का मार्ग अंधकारमय होता है, और गुरु ही सही दिशा देकर भक्ति और मुक्ति की राह पर आगे बढ़ाते हैं


❖ टिप्पणी:

इस दोहे का संदेश सीधा है:

  • गुरु के बिना जीवन दिशाहीन है
  • सतगुरु ही वह दीपक हैं जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर हमें भगवान तक पहुंचने की राह दिखाते हैं
  • यह हमें यह भी चेतावनी देता है कि भटका हुआ जीवन नरक समान है, और गुरु मार्गदर्शन ही हमें उस विनाशकारी राह से बचाता है।

यह दोहा हर साधक को प्रेरित करता है कि गुरु की वाणी को अपनाना ही मोक्ष का मार्ग है


Monday, 4 August 2025

अन्तर थो बहु जन्म को ।। श्री दरियाव वाणी

अन्तर थो बहु जन्म को , सतगुरु भाँग्यो आय ।

दरिया पति से रूठनो , अब कर प्रीति बनाय ।।


❖ शब्दार्थ:

  • अन्तर = दूरी, विरह
  • थो = था (राजस्थानी / ब्रज शैली में)
  • बहु जन्म को = अनेक जन्मों का
  • सतगुरु भाँग्यो = सतगुरु ने तोड़ दिया / समाप्त कर दिया
  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • पति से रूठनो = अपने परमपति (परमात्मा, रामजी) से रूठे रहना
  • प्रीति बनाय = प्रेम स्थापित करना, प्रेम-संबंध जोड़ना

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि हमारे और परमात्मा के बीच की दूरी कोई एक जीवन की नहीं, बल्कि अनेक जन्मों की दूरी है।
यह दूरी सतगुरु की कृपा से ही मिट सकती है
अब जबकि सतगुरु ने वह दूरी समाप्त कर दी है, तो परमात्मा से रूठे रहना उचित नहीं
बल्कि अब हमें उनसे प्रेम और आत्मिक संबंध जोड़ना चाहिए।


❖ व्याख्या:

यह दोहा उस आध्यात्मिक सच्चाई को उजागर करता है, जो अक्सर साधकों की दृष्टि से ओझल रहती है — कि हमारा परमात्मा से जुड़ाव टूटा नहीं है, बस हम भूल गए हैं

  • संत दरिया जी कहते हैं कि यह भूल, यह विरह, यह अन्तराल कोई एक जीवन की नहीं, असंख्य जन्मों की है।
  • इतने दीर्घकाल से परमात्मा से हमारा प्रेम-संबंध टूटा हुआ है
  • लेकिन जब सतगुरु कृपा करते हैं, तो वे उस भूल को भंग कर देते हैं, आत्मा को उसका मूल स्वरूप और परम लक्ष्य याद दिलाते हैं।

संत दरिया आगे कहते हैं कि अब जब सतगुरु ने वह दूरी मिटा दी है, तो अब भी परमात्मा से रूठे रहना, उनसे प्रेम न करना — यह उचित नहीं है।

अब समय है कि हम:

  • रूठे हुए परम पति से प्रीति करें
  • अपने भीतर उस भक्ति, प्रेम और आत्मीयता को जगाएं
  • और उस पवित्र संबंध को फिर से जोड़ें जो आत्मा और परमात्मा के बीच जन्मजात था

❖ टिप्पणी:

यह दोहा हमें याद दिलाता है कि सतगुरु ही वह पुल हैं, जो जीव और परमात्मा के बीच के अनेक जन्मों के विरह को समाप्त करते हैं

मगर केवल दूरी मिटा देना पर्याप्त नहीं — अब हमें स्वयं प्रेम की डोर थामनी होगी, रूठे हुए परमात्मा से मिलन की पहल करनी होगी

यह वाणी एक आत्मिक आह्वान है — कि अब और देरी मत कर, प्रेम में उतर जा, सत्य से जुड़ जा


Sunday, 3 August 2025

सतगुरु दाता मुक्ति का ।। श्री दरियाव वाणी


सतगुरु दाता मुक्ति का, दरिया प्रेम दयाल ।
किरपा कर चरणों लिया, मेटा सकल जंजाल।।


❖ शब्दार्थ:

  • सतगुरु = सच्चे गुरु, सत्यस्वरूप आत्मज्ञान से युक्त गुरु
  • दाता मुक्ति का = मोक्ष देने वाले, जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने वाले
  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • प्रेम दयाल = प्रेममय और दयालु, करुणा से पूर्ण
  • किरपा कर = कृपा करके
  • चरणों लिया = अपने शरण में लिया
  • मेटा सकल जंजाल = सारे बंधनों, सांसारिक उलझनों और अज्ञान को मिटा दिया

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि सतगुरु ही मुक्ति के सच्चे दाता हैं।
वे प्रेम और दया के सागर हैं। जब उन्होंने कृपा करके मुझे अपने चरणों की शरण में लिया, तो उन्होंने मेरी सभी सांसारिक उलझनों, दुखों और अज्ञान का अंत कर दिया।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में संत दरियावजी महाराज सतगुरु की महानता और उनकी कृपा के प्रभाव को श्रद्धापूर्वक प्रकट करते हैं।

वे कहते हैं कि:

  • सतगुरु ही मुक्ति के दाता हैं, क्योंकि वही जीव को माया और भ्रम से निकालकर परमात्मा की ओर ले जाते हैं।
  • सतगुरु कोई सामान्य शिक्षक नहीं, बल्कि सत्य से एकरूप हुए, प्रेमस्वरूप, और दयालु होते हैं।
  • जब ऐसे सतगुरु की कृपा होती है, और साधक को वे अपने चरणों में स्थान देते हैं — अर्थात उसे अपनी शरण में स्वीकारते हैं — तो उस साधक का जीवन रूपी बोझ, उसका अज्ञान, मोह, बंधन, और सभी मानसिक और आत्मिक जंजाल नष्ट हो जाते हैं।

यह केवल बाहरी बदलाव नहीं, बल्कि अंतरात्मा की क्रांति होती है।


❖ टिप्पणी:

इस दोहे में संत दरियावजी ने गुरुकृपा की शक्ति को अत्यंत सरल और हृदयस्पर्शी रूप में व्यक्त किया है।
यह वाणी हमें सिखाती है कि सच्चे मार्ग की प्राप्ति, आत्मिक शांति और मोक्ष — सब कुछ सतगुरु की कृपा से ही संभव है

यह दोहा हमें यह भी बताता है कि मोक्ष कोई दूर की वस्तु नहीं, वह तब प्राप्त होती है जब हम प्रेम, श्रद्धा और समर्पण से सतगुरु की शरण में आते हैं


Friday, 1 August 2025

दरिया सतगुरु भेंटिया ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु भेंटिया , जा दिन जन्म सनाथ ।
श्रवना शब्द सुनाय के, मस्तक दीना हाथ।।


❖ शब्दार्थ:

  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • सतगुरु भेंटिया = सच्चे गुरु से मिलन हुआ
  • जा दिन = जिस दिन
  • जन्म सनाथ = जीवन धन्य हो गया, जन्म सार्थक हुआ
  • श्रवना = कानों द्वारा, श्रवण के माध्यम से
  • शब्द सुनाय = दिव्य वाणी / नाद / सतगुरु का उपदेश
  • मस्तक दीना हाथ = सिर पर कृपा का हाथ रखा, आशीर्वाद दिया

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि जिस दिन उन्हें सतगुरु का साक्षात्कार हुआ, उसी दिन उनका मानव जन्म सार्थक हो गया। सतगुरु ने जब उनके कानों में दिव्य वाणी (शब्द) सुनाया और माथे पर कृपा का हाथ रखा, तभी से उनका जीवन पूर्ण हो गया।


❖ व्याख्या:

यह दोहा सतगुरु की कृपा और उसके प्रभाव की गहराई को दर्शाता है।
संत दरिया जी बताते हैं कि जीवन के हर पल में भटकने के बाद जब उन्हें सच्चे सतगुरु का साक्षात्कार हुआ, तभी उन्हें असली अर्थ में “मानव जन्म” की सार्थकता समझ में आई।

सतगुरु ने उन्हें:

  • श्रवण के माध्यम से “शब्द” (दिव्य वाणी, नाद, उपदेश) सुनाया — यह “शब्द” आत्मा को झकझोरने वाला, जाग्रत करने वाला होता है।
  • और फिर कृपा का हाथ उनके मस्तक पर रखकर उन्हें आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ा दिया।

यह अनुभव कोई साधारण घटना नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई में उतरने वाला दिव्य मोड़ है, जिससे जीवन ही बदल जाता है।


❖ टिप्पणी:

यह दोहा दर्शाता है कि सतगुरु से मिलना ही असली जन्म है
बिना गुरु के जीवन भटका हुआ रहता है, पर जब सतगुरु मिलता है और अपनी वाणी से आत्मा को झकझोरता है, तब जन्म “सनाथ” हो जाता है — अर्थात वह अब अनाथ नहीं, परमात्मा से जुड़ा हुआ हो जाता है।

“मस्तक दीना हाथ” केवल आशीर्वाद नहीं, बल्कि वह कृपा संचार है जिससे साधक का मन, चित्त और आत्मा सभी रूपांतरित हो जाते हैं।



Thursday, 31 July 2025

"नमो नमो हरि गुरु नमो..." श्री दरियाव वाणी


नमो नमो हरि गुरु नमो , नमो नमो सब सन्त ।जन दरिया वन्दन करै , नमो नमो भगवंत।।


❖ शब्दार्थ:

  • नमो नमो = बारम्बार प्रणाम / नमस्कार
  • हरि = ईश्वर, विष्णु, ब्रह्म
  • गुरु = आध्यात्मिक शिक्षक, आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाला
  • सब सन्त = सभी संतजन
  • जन दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • वन्दन करै = नमन करते हैं
  • भगवंत = भगवान, परब्रह्म, परम सत्ता

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी महाराज हरि, गुरु, सभी संतों और परमात्मा भगवंत को बारम्बार वंदन करते हैं। यह उनके गहन समर्पण, भक्ति और विनम्रता को प्रकट करता है।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में संत दरियावजी महाराज अपनी आत्मिक भावना और श्रद्धा को सहजता से प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि वे हरि (परमात्मा), गुरु (सतगुरु), सभी संतजन, और परम भगवंत को बारम्बार नमस्कार करते हैं।

इसमें यह संकेत है कि आध्यात्मिक मार्ग में हरि, गुरु और संत — तीनों ही पथप्रदर्शक हैं।

  • हरि (परमात्मा) से संबंध स्थापन करना साधना का लक्ष्य है।
  • गुरु वह दीपक हैं जो अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाते हैं।
  • संत समाज में दिव्यता और प्रेम का संचार करते हैं।

संत दरिया कहते हैं कि यह सब कुछ उन्हें भगवंत की कृपा से ही मिला है, इसलिए वे हर क्षण कृतज्ञता पूर्वक वंदन करते हैं।


❖ टिप्पणी:

यह दोहा संत परंपरा की नम्रता, भक्ति और समर्पण की पराकाष्ठा को दर्शाता है।
यह भी संकेत करता है कि आध्यात्मिक मार्ग पर अहंकार नहीं, केवल वंदन और समर्पण ही चलते हैं।
यह वाणी साधकों को यह प्रेरणा देती है कि गुरु, हरि और संतों के प्रति नम्रता रखकर ही परम लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।


Monday, 28 July 2025

नमो राम परब्रह्मजी ।। श्री दरियाव वाणी

॥ नमो राम परब्रह्मजी ॥

नमो राम परब्रह्मजी, सतगुरु संत आधार।
जन दरिया वन्दन करै, पल पल बारम्बार।।


शब्दार्थ:

  • नमो = नमन, वंदन
  • राम परब्रह्मजी = परमेश्वर स्वरूप राम, जो निर्गुण-सगुण से परे, सर्वव्यापक ब्रह्म हैं
  • सतगुरु = सच्चे गुरु, जो आत्मा को परमात्मा से मिलाते हैं
  • संत आधार = संत ही इस जीवन के आधार हैं, जो राह दिखाते हैं
  • जन दरिया = संत दरियावजी महाराज, सेवक स्वरूप
  • वन्दन करै = नमन करते हैं
  • पल पल बारम्बार = हर क्षण बार-बार

भावार्थ:

संत दरियाव साहेब कहते हैं कि मैं उन राम परब्रह्मजी को बारम्बार प्रणाम करता हूँ, जो इस सम्पूर्ण सृष्टि के मूल कारण हैं, जो सच्चे सतगुरु और समस्त संतों के भी आधार हैं।
ऐसे परब्रह्म को दरियावजी जैसा भक्त हर पल, हर श्वास में श्रद्धा से नमन करता है।

यह दोहा भक्त के हृदय में बसी गुरु भक्ति, संत श्रद्धा और ब्रह्म-निष्ठा का गहरा भाव प्रकट करता है।


टिप्पणी:

यह दोहा रामस्नेही परंपरा के उस भाव को व्यक्त करता है जहाँ राम = परब्रह्म, और गुरु-संतों को उस परब्रह्म तक पहुँचने का साधन माना गया है। संत दरियावजी का जीवन इसी नित्य वंदना और ध्यान का उदाहरण है।




Sunday, 27 July 2025

बहु विघन माया करे ।। श्री दरियाव वाणी

दोहा:

बहु विघन माया करे, निश दिन झंपे काल।
दरिया कुण बल साध के, रक्षक राम दयाल॥


शब्दार्थ व पंक्ति-विश्लेषण:

1. बहु विघन माया करे

  • बहु = बहुत
  • विघन = विघ्न (बाधाएँ)
  • माया = संसार की मोहिनी शक्ति (भ्रम, इच्छाएँ, भटकाव)
    👉 माया अनेक प्रकार की बाधाएँ उत्पन्न करती है।

2. निश दिन झंपे काल

  • निश दिन = दिन-रात
  • झंपे = हमला करता है, दबोचता है
  • काल = मृत्यु, समय का संहारक रूप, नाशकारी शक्ति
    👉 काल (मृत्यु और भय का प्रतीक) दिन-रात साधक पर हमला करता है।

3. दरिया कुण बल साध के

  • दरिया = संत दरियाव जी स्वयं
  • कुण = कौन
  • बल = बल (आंतरिक शक्ति)
  • साध = साधना करके
    👉 संत दरियावजी कहते हैं कि कौन ऐसा है जो साधना द्वारा बल प्राप्त करे…

4. रक्षक राम दयाल

  • रक्षक = रक्षा करने वाला
  • राम दयाल = करुणामय राम, परमात्मा
    👉 … और उसे परम कृपालु राम (ईश्वर) की रक्षा प्राप्त हो जाए।

समग्र भावार्थ (सरल हिंदी में):

माया (संसार की मोहिनी शक्तियाँ) साधक के मार्ग में बहुत सारी बाधाएँ डालती है, और काल (मृत्यु/अज्ञान/भय) दिन-रात उसे दबोचने की कोशिश करता है।
लेकिन जो साधक पूरे बल और निष्ठा से साधना करता है, उसे परम दयालु भगवान राम (परमात्मा) की रक्षा प्राप्त होती है।


आध्यात्मिक संकेत:

यह दोहा हमें बताता है कि—

  • साधना का मार्ग आसान नहीं है।
  • माया और काल निरंतर साधक को गिराने का प्रयास करते हैं।
  • लेकिन जो दृढ़ निश्चयी और समर्पित होता है, उसकी रक्षा स्वयं परमात्मा करते हैं।


Tuesday, 29 April 2025

संत दरियावजी महाराज द्वारा सेठ मधुचंद की रक्षा और दरियागंज की उत्पत्ति

संत दरियावजी महाराज द्वारा सेठ मधुचंद की रक्षा और दरियागंज की उत्पत्ति

संत दरियावजी महाराज के परम भक्तों में एक थे — दिल्ली निवासी नगर सेठ मधुचंद, जो एक श्रावक (जैन) कुल से थे। वह संत की शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे और गुरुभक्ति में लीन रहते थे।

यमुना में संकट

एक दिन सेठ मधुचंद प्रातःकाल यमुना नदी में स्नान कर रहे थे। दुर्भाग्यवश, वे जल की तेज धारा में बहने लगे और डूबने की स्थिति में आ गए। संकट की घड़ी में उन्होंने हृदय से अपने सतगुरु दरियावजी महाराज का स्मरण किया।

उस समय संत दरियावजी महाराज रेणधाम में विराजमान थे। भक्त की पुकार पर उन्होंने आध्यात्मिक रूप से यमुना में प्रकट होकर सेठ की रक्षा की। उन्होंने जल से उन्हें बाहर निकाला और जीवनदान दिया।

यह घटना भक्तों के लिए यह दर्शाती है कि:

> "सच्चे संत न केवल जीवन में मार्गदर्शक होते हैं, बल्कि संकट में रक्षक भी बनते हैं।"




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दरियागंज नामकरण

इस चमत्कारी कृपा से अभिभूत होकर, सेठ मधुचंद ने दिल्ली में अपने निवास क्षेत्र में एक मोहल्ले को “दरियागंज” नाम दिया — अपने सतगुरु दरियावजी के स्मरण और सम्मान में।

> यह नाम “दरियाव” (गुरु का नाम) + “गंज” (क्षेत्र या बाजार) के रूप में आज भी जीवित है।




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भावपूर्ण दोहा:

धरयो रूप भगवान दास दरिया को भारी।
करी सहाय तत्काल, इस्या है देव मुरारी।।


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यह प्रसंग दर्शाता है कि:

संत की कृपा असीम और अकल्पनीय होती है।

गुरु-स्मरण मात्र से जीवन का संकट टल सकता है

Thursday, 24 April 2025

सूरत शब्द योग

सूरत शब्द योग 
एक आध्यात्मिक ध्यान और साधना प्रक्रिया है, जो संत मत और अन्य आध्यात्मिक परंपराओं में अभ्यास की जाती है। इसमें "सूरत" (आत्मा) को "शब्द" (आत्मा का संगीत या आंतरिक ध्वनि) के साथ जोड़ना और अंततः परमात्मा के साथ मिलन करना शामिल है. 

विस्तार से
सूरत (आत्मा):
सूरत का अर्थ है आत्मा या ध्यान। यह शरीर, मन और आत्मा के परे, एक साक्षी तत्व है जो सब कुछ देखता है. 
शब्द (आत्मा का संगीत):
शब्द का अर्थ है आत्मा का संगीत या आंतरिक ध्वनि। यह वह ध्वनि है जो सृष्टि के आरंभ से ही प्रवाहित हो रही है और यह आत्मा को परमात्मा की ओर आकर्षित करती है. 
योग (मिलन):
योग का अर्थ है जोड़ना या मिलन। सूरत शब्द योग में, "सूरत" (आत्मा) को "शब्द" (आत्मा का संगीत) के साथ जोड़कर परमात्मा के साथ मिलन किया जाता है. 

अभ्यास
सूरत शब्द योग का अभ्यास मुख्य रूप से आंतरिक ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित करके किया जाता है। इसमें सिमरण (राम नाम का जाप), ध्यान और भजन (आत्मा के संगीत को सुनना) शामिल है. 

लक्ष्य
सूरत शब्द योग का मुख्य लक्ष्य आत्मा को अपने मूल निवास तक पहुँचाना है, जहाँ से वह सृष्टि के आरंभ में उतरी थी और परम आनंद को प्राप्त करना है. 

संत मत और अन्य परंपराओं में
सूरत शब्द योग संत मत और अन्य आध्यात्मिक परंपराओं में अभ्यास की जाने वाली एक महत्वपूर्ण साधना है। यह आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने का एक सरल और सहज मार्ग है.

Friday, 18 April 2025

उपदेश: मनुष्य और परमात्मा का संबंध


उपदेश: मनुष्य और परमात्मा का संबंध

मनुष्य के समक्ष सदा से यह प्रश्न रहा है कि क्या परमात्मा वास्तव में है? यदि है, तो उससे मिलन कैसे संभव है? इस विषय पर अनेक ग्रंथ और पुस्तकें लिखी गई हैं, परंतु केवल संत महात्मा ही इस गूढ़ प्रश्न का सही उत्तर दे सकते हैं, क्योंकि वे स्वयं परमात्मा से मिलन कर चुके होते हैं। उनका अनुभव प्रत्यक्ष प्रमाण होता है।

संतों का कहना है कि जब से जीव इस सृष्टि में आया है, वह परमात्मा की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है, जबकि परमात्मा तो उसके भीतर ही विद्यमान है। संत महात्मा न केवल यह सिद्ध करते हैं कि परमात्मा है, बल्कि यह भी बताते हैं कि वह एक ही है। यहाँ "एक" का तात्पर्य संख्या से नहीं, बल्कि उसके अद्वैत स्वरूप से है — वह ही सत्य है, वही सब कुछ है, उसके सिवा और कोई नहीं।

दरियाव साहिब की वाणी में परमात्मा

संत दरियाव साहिब ने अपनी वाणी की शुरुआत प्रभु की वंदना से की है, जिसे उन्होंने 'ब्रह्म' या 'परब्रह्म' कहा:

"नमो राम पर ब्रह्माजी सतगुरु संत आधार।

जन दरिया बंदन करे पल पल बारम्बार ।।"

अपने जीवन के अंतिम चरण में जब प्रभु से उनका मिलन हुआ, तब वे प्रेम में निमग्न होकर कहते हैं:

"सोई कंत कबीर का, दादू का महाराज।

 सब संतन का बलमा, दरिया का सिरताज। 

तीन लोक चौदह भवन, दरिया देख्या जोय ।

एक राम सरीखा राम है, इसा न दूजा कोय।।"

यह वही परमात्मा है जो कबीर का स्वामी था, दादू का प्रियतम था, और सभी संतों का इष्ट है। वही दरियाव साहिब का सिरताज है — तीनों लोकों का स्वामी।

परमात्मा का दर्शन और अनुभव


उन्होंने प्रभु को उस निर्गुण, निराकार रूप में अनुभव किया, जो इंद्रियों की पकड़ से परे है। वह सृष्टिकर्ता है, जो हर कण में व्याप्त है। उसका कोई आदि, मध्य या अंत नहीं है। दरिया साहिब कहते हैं:

"आदि अंत मध्य नहीं, जग को कोई पार। 

मनुष्य जीवन का उद्देश्य

दरियाव साहिब ने मनुष्य जीवन को एक यात्रा बताया है। इस यात्रा का उद्देश्य है आत्मा का परमात्मा से मिलन। यह दुर्लभ मानव जीवन बार-बार जन्म मरण के चक्र से गुजरकर प्राप्त हुआ है। उन्होंने कहा:

शरीर पंचतत्वों से बना है, और इस जीवन का उद्देश्य है अपने कर्मों का बोझ उतारकर आत्मा को परमात्मा में विलीन करना।

सतगुरु का महत्व

परमात्मा तक पहुंचने के लिए एक मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है — और वही हैं सतगुरु। दरिया साहिब कहते हैं:

"साधु मेरे सतगुरु भेद बताया, टेट राम निकट ही पाया। 

सतगुरु मिलें तो अर्थ बतावे, जीव ब्रह्म का मेला।"

सतगुरु वह होते हैं जिन्होंने स्वयं परमात्मा से मिलन कर लिया होता है। वे मार्ग दिखाते हैं, शब्द का अभ्यास कराते हैं और अंतर्मुखी यात्रा में साथ देते हैं।

" सतगुरु दाता, मुक्ति का दरिया प्रेम दयाल। 

कृपा कर चरणों लिया, मेटा सकल जंजाल।"

सच्चे साधु की पहचान

दरिया साहिब सच्चे साधु की पहचान बताते हुए कहते हैं:

"दरिया लक्षण साधु, बाहर भीतर एक। 

रहनी करनी साध की, एक राम की टेक।"

सच्चा साधु सांसारिक व्यवहार करता हुआ भी अंतर्मुखी भक्ति में लीन रहता है। वह मायामोह से परे होता है और सदैव राम नाम में स्थित होता है।

संदेश

दरिया साहिब का उपदेश है कि यह मानव जीवन एक अमूल्य अवसर है — इसे संसार के भौतिक सुखों में न गंवाकर परमात्मा की भक्ति में लगाएं। उन्होंने स्वयं के अनुभव से बताया कि सतगुरु की कृपा से ही परमात्मा से मिलन संभव है। उन्होंने कहा:

"दरिया गुरु पूरा मिला, नाम दिखाया नूर। 

 निसा गई सुख ऊपजा , किया निसाना दूर।।





Thursday, 17 April 2025

दरियावजी महाराज का प्राकट्य रामस्नेही सम्प्रदाय का उद्‌गम

दरियावजी महाराज का प्राकट्य रामस्नेही सम्प्रदाय का उद्‌गम

कर्मन्दिनां विश्वजनीन रामस्नेही जगद्धिश्रुत सम्प्रदाय ।
 तपोबल वोक्ष्य न यस्य केवा भवन्ति मग्ना भुवि विस्मयाष्धौ ।।


नमो राम पर ब्रह्माजी सतगुरु संत आधार।
जन दरिया बंदन करे पल पल बारम्बार ।।


धर्मप्रदान भारत देश संत सती तथा शूरवीरों का तपोस्थल रहा है। जब जब देश समाज वह धर्म पर आपत्तियां आई तब तब अनन्त कोटी ब्रह्माण्ड नायक ईश्वर की विभूतियां ईश्वर प्रेरणा से भारत देश में अवतरित होती रही है। योग साधना भारत की विश्व को सर्वश्रेष्ठ देन है। अनादिकाल से इस पुण्य भूमि पर महान् योगनिष्ठ महात्मा अवतरित होते रहे हैं। सोभाग्य से इस युग के महान् तपस्वी गूठतम योग तत्वों के ज्ञाता आत्मदर्शी अनन्त विभूषित महात्माओं तथा संतों का जन्म होता रहा है।
भारत पुण्यमय एवं पावन भूमि है। संत महापुरुषों के जप-तप एवं साधना से यह भूमि पवित्र हो गई है, इसलिए भारत माता संत महात्माओं की अमर भूमि है। पूरे विश्व में विख्यात यह भारत एक सत प्राण व ईश्वरीय कृत अवतरित देश के रूप में विख्यात है। भारत का नाम पूरे विश्व में संतों का आर्विभाव एवं संतत्व भावनाओं से प्रेरित देश के रूप में रहा है। संतों की कठोर तप व तपस्या के कारण ही यहां की धरती पावनहै। भारत के चराचर में ईश्वर निवास करते हैं। यहां पर ईश्वर संत के रूप में बार-बार जन्म लेते हैं।
भारत धर्मप्रधान देश रहा है। इसलिए भारत में अध्यात्मवाद का प्रभाव विश्व के सभी देशों से बहुत अधिक है। प्राचीन काल से ही यहां के ऋषी-मुनी यहां के निवासियों के हृदय में अध्यात्मवाद एवं भक्ति की पावनधारा प्रवाहित करते रहे हैं, लेकिन मध्ययुग में देश की राजनैतिक परिस्थितियां, विशेषकर बाह्य आक्रांताओं द्वारा इस देश पर अपना शासन स्थापित कर लेने के पश्चात यहां का जनजीवन अस्त-व्यस्त व आशंका का वातावरण व्याप्त हो गया था। ऐसे विषम परिस्थितियों में भक्त और देशवासियों के दुखद हृदय से कुसंगति से बचने के लिए भारतीय जनता ने परमात्मा से रक्षा की गुहार की।
हे सन्त प्यार के दीप जगत में नूर फैलाते हैं।
 सदा चली आई है रीत, सभी को गले लगाते हैं।।
"भक्त और भगवान एक ही है।"
इस वाक्य को चरितार्थ करने हेतु भगवान स्वयं भक्तों के रूप में धरती पर अवतरित होकर धर्म, समाज तथा देश की रक्षा करते हैं, इसी विषय के कारक कोटि महापुरुष भगवत प्रेरणा से धर्म की रक्षा हेतु मरुधर प्रान्त मारवाड़ में अवतरित हुए। वाणी में कहा भी है-
"जम जालम के तापसे, हंसा करी पुकार। 
सुखियां साहिब आविया, ले जन की अवतार ।।"

उपर्युक्त साखी के अनुसार स्वयं भगवान विभूति रूप में अनन्त विभूषित श्री दरियावजी महाराज अवतरित हुए, अपने धर्म और आस्था के प्रभाव से लाखों लोगों को आत्मज्ञान देकर 'राम' शब्द (नाद ब्रह्म) उपासना के माध्यम से कृतार्थ किया। श्री दरियावजी महाराज के भक्ति का प्रभाव सूर्य के प्रकाश की तरह पूरे विश्व में फैलने लगा। महाराजश्री की अनुठी साधना से राजा-महाराजा भी इनकी शिष्यता स्वीकार कर शरण में आकर शान्ति की अनुभूति करने लगे।
प्रकट भये दरिया सा दाता, जान कलयुग में व्याख्ता। 
भरतखण्ड मरूधर की माही, देश एक जैतारण जाही
 जन्म धर अवनि पर आये, गगन सूं पुष्पन झलाये द्वारिका नगरी में कमल में खिलाकर,पधारे हमारे दरिया सा दाता
पण्डित देख पुराण को सकल समझाय राजा, 
परजा, बादशाह, नीवै पैगम्बर आय धरेणा चरणो में माथा


ऐसे विषम परिस्थिति में रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्तक अनन्त श्री विभूषित श्री दरियावजी महाराज के प्राकट्य वि. स. 1733 कृष्ण जन्माष्टी के दिन द्वारकापूरी (गुजरात) के द्वारका सागर में कमल के पुष्प पर हुआ। दरियाव से प्राप्त होने के कारण आचार्य श्री को दरियाव नाम से पुकारा जाने लगा।
पौराणिक गाथाओं से पता चलता है कि महापुरुषों का जन्म प्रायः रहस्यमय व दिव्य ढंग से होता है। असाधारण परिस्थिति में ही असाधारण महामानव जन्म लेते हैं।
एक बात यह भी सत्य है कि भक्त और भगवान सदा अजन्मा ही होते हैं। भले ही इनका अवतरण किन्ही परिस्थिति में कैसे ही हो। शिशुकाल जैतारण (राजस्थान) में व्यतीत हुआ। लालन-पालन माँ गीगाबाई तथा पिता मनसारामजी ने किया। पिता के मृत्यु के बाद दरियाव साहब रेण में अपेन नाना किशनचंद्रजी खत्री के यहाँ आये।
आये हो ब्रह्म लोक दरिया सा महाराज दरिया तूम हो दीन बन्धु हीतकारी, मैं दुखिया शरण तिहारी।
काटो जन्म मरण के फेरे रेण धाम के दरिया मेरे ।।

दरियाव महाराज के प्राकट्य के समय देश में बहु देवोपासना, कर्मकांड की कठोरता, आर्थिक विषमता, ऊँच नीच के भेदभाव आदि अनेक प्रकार के उत्पीड़न चरम सीमा पर पहुंचे हुए थे। तभी बाहरी आक्रमक कारियों ने यहां के राजाओं की फूट का लाभ उठाकर अपना शासन पूर्ण रूप से स्थापित किया और प्रजा काधर्म परिवर्तन करना प्रारंभ कर दिया।
जन्म मरण सू रहित है, खण्डे नहीं अखण्ड।
जन दरिया भजराम जी, जिन्हा रची ब्रह्माण्ड ।।

संक्रामक काल की इसी स्थिति में निराश उत्पीडित, शोषित, कर्तव्य-विमूढ एवं दिशाविहिन भारतीय जनता का श्री दरियावजी महाराज ने पथ प्रदर्शन किया, क्योंकि लोगों को असहाय और दुःखी देखकर सच्चे साधु का हृदय द्रवित हो जाता है। द्रवणशीलता के कारण ही सच्चासाधु अपनी व्यक्तिगत
साधना की अपेक्षा लोक कल्याण को अधिक महत्व देता है। अपने इसी उच्चकोटी के साधु स्वभाव के कारण ही श्री दरियावजी महाराज ने आतंकित व संत्रस्त भारतीय जनता को जीवन में सुख और शान्ति प्राप्त करने के लिये तथा मानव जीवन को सार्थक बनाने के उद्देश से रामभक्ति (भगवद्भक्ति) की महिमा बताई। जन भावना का आदर करके ही सगुण ब्रह्म को माता तथा निर्गुण ब्रह्म पिता के रूप में स्वीकार कर समन्वयवादी उदार दृष्टि कोण अपनाया है।
भागवत, संस्कृत, गीता, वेद धुन निस वासर करता।
हिन्दी पारसी न्यारी, विद्या पद हिरदा में धारी ।।
आचार्य श्री दरियावजी महाराज थोड़े ही समय में काशी निवास कर व्याकरण, वेद, गीता, उपनिषद एवं सभी दर्शन शास्त्रों का अध्ययन किया। एक दिन आचार्य श्री नित्यनियम के अनुसार श्रीमद् भागवत व उपनिषदों का पाठ कर रहे थे। "रहुगणैः तत्तपसाः" आदि।
तभी उनकी दृष्टि गुरु-महिमा विषय पर अटक कर रह गई। उन्हें उसी समय सद्‌गुरु बनाने की प्रेरणा प्राप्त हुई। जैसा कि नियम है- अन्तर्यामी भगवान सत्य-संकल्प को अवश्य पूरा करते हैं-वह पुरा हुआ। महाराज श्री की स्थिति गुरु के वियोग में विरहिणी जैसी हो चुकी थी। वे घंटो बैठकर सतगुरु का चिन्तन करते थे। वे सोचते रहते थे कि कब भगवत प्राप्त पुरुष क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठा महापुरुष मिलेंगे ?
गगन गिरा वाणी भई, बोल्या श्री भगवान।
प्रेम पुरुष मिलसी अब तोकूँ कहो हमारो मान ।।

अतः भगवान की प्रेरणा से प्रेमदासजी महाराज वि. सं. 1769 में भिक्षाटन करते हुए महाराज श्री के निवास स्थान पर पधारे। उन्होंने दरियाव महाराज के द्वार पर आकर बड़े घोष के साथ 'राम' कहा। राम की रहस्यमयी ध्वनि दरियाव महाराज के श्रवणों से होती हुई अन्दर तक प्रविष्ट हो गई। शीघ्र ही दरियाव महाप्रभू घर से निकलकर प्रेमदासजी महाराज के चरणों में गिर गए औरआत्म निवेदन किया। सन्तों का तो यह स्वभाव ही होता कि वे जिज्ञासु व प्रणव जनों को अपनाते है। वि. सं. 1769 कार्तिक शुक्ला एकादशी के दिन प्रेमदासजी महाराज ने दरियावजी महाराज का 'राम' नाम का तारक मंत्र प्रदान कर शिष्यत्व प्रदान किया।
सतगुरु दीन दयाल के, चरण नवायो शीश। प्रेमदास प्रसन्न भए, सुण रामस्नेही ईश ।। भेख तुम्हारा चालसी, सुन रामस्नेही बात। रामस्नेही धर्म के, होंगे तुम सिरताज ।। 

"दरिया सतगुरु भेंटिया जा दिन जन्म सनाथ,

श्रवणा शब्द सुनायके, मस्तक दीना हाथ।"

सतगुरु के उपदेशानुसार श्री दरियाव महाप्रभु अखंड ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर सूरत शब्द योग से राम भजन करने लगे। इस प्रकार महाप्रभू कंठ, हृदय, नाभि, मुलाधार, बंक, मेरू, त्रिकुटी, दशावाँद्दार, शुन्य व महाशुन्य से परे जीवाभास को हटाकर कैवल्य ज्ञान को प्राप्त हुए।
दरिया सुमिरै राम को, आठ पहर आराध।

 रसना मैं रस उपजे, मिश्री जैसा स्वाद ।।
आचार्य श्री दरियावजी महाराज के यों तो हजारों शिष्य थे किन्तु इनमें ज्ञानी-ध्यानी शिरू 72 ही थे, 9 शिष्याएं भी प्रधान थी। आचार्य श्री के प्रायः सभी शिष्य महान व्यक्तित्व वाले, पराक्रमी, चमत्कारी तथा उन जैसी ही श्रद्धा व भक्ति से सम्पन्न थे। महाराज श्री अपने शिष्यों पर सदैव कड़ी दृष्टि रखते थे तथा कड़ाई से नियमों का पालन कराया करते थे। वे सदैव उन्हें आदर्शा, सत्य आचरण पर चलने के लिए प्रेरित करते रहते थे। उनके द्वारा बताए गए कुछ नियम इस प्रकार हैं:-
अहिंसा, ब्रह्मचर्य, शुद्ध आचरण, अक्रोध, दृष्ट-संग त्याग, सर्व दुर्व्यस्न त्याग, निर्गुण राम, आत्मानुसंधान, सुरत शब्द योग, गमनागमन, लोकों से परे केवल ब्रह्म आदि। वे इनका उपदेश करते थे। इस प्रकार आचार्य श्री के इन उपदेशों से हजारों नर-नारियों का कल्याण हुआ।
तत्व निष्ठ तथा धर्म रक्षक स्वभाव ।।
जन दरिया सतगुरु मिला, कोई पुरूवले पुन्न ।।

 जड़ पलट चेतन किया, आन मिल्या सुन्न ।।
श्री दरियावजी महाराज के अनेक शिष्यों में गुरु कृपा पात्र 8 शिष्य प्रधान माने जाते है। वे है-
श्री पूरणदासजी, श्री किशनदासजी, श्री सुखरामदासजी, श्री नानकदासजी, श्री हरकारामजी, श्री टेमदासजी, श्री बृजभानजी, श्री उदयरामजी।
दरिया तपस्या कृत ईटे रामनाम की है सार। 

जो आज भी तैरती है, लाखा सागर में सदाबहार ।।
आचार्य श्री की वाणियों की संख्या लगभग एक लाख थी। महाराजश्री द्वारा दिव्य वाणी से भरे हुए दिव्य लोकोपकारी संदेशों को किसी विषम परिस्थिति में लाखासागर में प्रवाहित किए जाने से शिष्य समुदाय को अपार कष्ट हुआ। उनके जीवन-चरित्र को लिखने के लिए उनके शिष्यों को जितनी वाणियाँ कण्ठस्थ रही उन्हीं के आधार पर सामग्री संकलित कर उन्होंने जनकल्याण के लिए लिपिबद्ध कर लिया। अनकी संख्या साखी शब्दों में अनुष्टुप श्लोक परिमाण से लगभग 700 है।
संसार में संयोग-वियोग का चक्र तो अनादिकाल से चला आ रहा है। प्रकृति के नियम सबके लिए एक से है। शरीर सबका नारायण है। परन्तु महापुरुषों की पुनीत वाणी जनकल्याणार्थ अजर-अमर होती है। वाणी ही महापुरुषों की अमर श्री विग्रह है। जैसे श्रीमद् भागवत और गीता स्वयं कृष्ण सशरीर है।
महान विभूतियों का अवतरण जिस उद्देश्य से धराधाम पर होता है। उसकी पूर्ति होने पर वे ऐहिलौकिक लीला संवरण कर लेते है। ऐसे ही महापुरुषों की श्रेणी में श्री दरियावजी महाराज अग्रगण्य है। आचार्य श्री की सभी शिष्य मण्डली उनकी सेवा में उपस्थित थी। उनके अन्तिम सारगर्भित प्रवचन उनके महाप्रयाण की सूचना दे रहे थे।
"कुण जाणे दरद हमारा, म्हारा बिछड्या रामप्यारा।
जन दरिया धाम सिधारा म्हारा नैन उमड़ भर आया ।।

वि. सं. 1815 मार्गशीर्ष की पूर्णिमा की सवा पहर रात बितने पर महाराज श्री ध्यान मुद्रा में स्थित हो गए। एक बार तो शिष्य समुदाय के करूण क्रदन से आकाश भर गया किन्तु दूसरे ही क्षण आचार्य श्री के उपदेश से सान्त्वना पाकर नाम जप करने लगे। आचार्य श्री ने इस परम पावन वसुन्धरा पर 82 वर्ष तीन मास व इक्कीस दिन, राम नाम भक्ति का महाकल्पवृक्ष लगाकर बाइसवें दिन सवा पहर रजनी बीतने पर ध्यान मुद्रा में स्थित होकर इस भौतिक शरीर का त्याग कर दिया और कैवल्य धाम प्राप्त किया :-
दाता गुरु दरियाव सही, गुरुदेव हमारा। 

राम राम सुमिराय, पतित को पार उतारा।


 राम नाम सुमिरण दिया, दिया भक्ति हरी भाव, 

आठ पहर बिसरो मती, यो कहै गुरु दरियाव ।।
महाराज श्री के जीवन की घटनाएँ ऐ से एक बदकर व लोकोपकारी है।
भक्तों और महात्माओं का अवतार तो जनकल्याण के लिए ही होता है। जिन महापुरुषों ने मानव-धर्म की सुखी जड़ों को हरा किया उनमें आचार्य श्री का विशेष स्थान है। मारवाड़ देश में धर्म संकट के समय विचलित हिन्दू समाज को धीरज बँधाकर तथा लाखों हिन्दुओं को विधर्मियों के पंजों से छुड़ाकर स्वधर्म में स्थिर करने का महान कार्य महाप्रभू दरियाव महाराज के द्वारा सम्पन्न हुआ। वे जीवन पर्यन्त भगवद् भक्ति का प्रचार करते रहे और रामस्नेही धर्म के मूलाचार्य बन कर डूबते हुए स्वधर्म रूपी जहाज के केवट बन गए।
आचार्य महाप्रभु के पश्चात जो भी आचार्य हुए, वे सभी बड़े वीतरागी, भजनानंदी, निष्ठावान, विद्वान व कार्यकुशल महापुरुष हुए। जिनमें श्री हरकारामजी महाराज, श्री रामकरणजी महाराज, श्री भगवतदासजी महाराज, श्री रामगोपालजी महाराज, श्री क्षमाराजी महाराज, श्री बलरामदासजी महाराज 
,श्री प. पू. हरिनारायणजी महाराज
तथा विद्यमान पीठाधीश श्री सज्जनरामजी महाराज।
लाखो लाव सीर सागर, त्रिवेणी समान है। 
याही में अडसठ तीरथ, अठारह पुराण है।।

रामधाम रेण में जनकल्याणार्थ गतिविधियाँ चलती रही है। यह धाम लाखासागर नामक तालाब के किनारे बसा हुआ है। श्री दरियावजी महाराज की वाणीजी की लाख साखियाँ जल में विसर्जित करदी गई थी। एक लाख वाणी विसर्जन के कारण उक्त सरोवर का नाम 'लाखासागर' पड़ा था। रामस्नेही भक्त इन सरोवर के जल का गंगा जल की भांति रोज प्राशन करते है, जो अत्यंत पवित्र एवं शुद्ध है। इसे गंगा जल से भी बढ़ कर परम पवित्र त्रितापहारी तीर्थ भक्तगण मानते हैं:
दरिया जैसी तुम करि वैसा, करि ना कोई नाम अमीरस मोह दियो, तीन लोक को बीज ।
 इतना नाम जपो; इतना नाम जपो।की जपने की हद कर दो, 

इतने सबल बन जाओ कि स्वयं यमराज के पन्ने भी रद कर दो ।।
इस प्रकार दरियावजी महाराज ने अवतार लेकर भारतवर्ष की जनता को रामनाम की महिमा का गुणगान कराया सभी भक्तों को इस अथाह भवसागर से पार उतरने की विधि बताई है। श्री दरियावजी महाराज ने अपने जीवन को राममय बनाकर तथा सभी शिष्यों को अपनी सखियों से तथा अपनी दिव्य वाणियों से सभी का जीवन धन्य कर दिया। दरियाव धाम को रामस्नेहीयों का उद्गम स्थल माना गया। सभी लोग रेणधाम और दरियावजी महाराज की ओर आकृर्षित होने लगे।